मंगलवार, 29 सितंबर 2009

कविता

हत्यारे  इतिहास  नहीं  पढ़ते 
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हत्यारों  की जेब  में होता है देश का नक्शा
टुकडों टुकडों  में , अलग अलग जेब  में 
अलग अलग भाषा में 


हत्यारे नक्शा  जोड़ते  नहीं 
हत्यारे  सिलवाते रहते  है नयी  नयी जेबे 


हत्यारों की नस्ल बहुत पुरानी है 
हत्यारे  पाए  जाते है ,हर देश  हर काल  में 


हत्यारों की सुरक्षा  करते है हत्यारे 
हत्यारों का कोई दुश्मन  नहीं होता 
हत्यारे  मारे  जाते है  दोस्तों के हाथों 


इतिहास में 
स्वर्ण  अक्षरों  में लिखी  गई है 
हत्यारों  की  गौरव  गाथा 
हत्यारे रचते है  इतिहास 
हत्यारे इतिहास  नहीं पढ़ते 
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शनिवार, 26 सितंबर 2009

कविता 
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हत्यारों  के सिर पर नहीं  होते सींग
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हत्यारे  विदेशों  से  आयातित  नहीं होते 
न  ही हत्यारों के सिर  पर होते  हैं सींग 


हत्यारे नास्तिक   नहीं  होते 
ईश्वर  होता है 
हत्यारों की  मुट्ठी  में बंद 
धर्म ग्रन्थ  होते है उनके  हथियार 
 हर हत्या के बाद  
उनकी आँखों  में होते है  आंसू 
हत्यारे होते है दानवीर 
हर हत्या के बाद लुटाते है  स्वर्ण  मुद्राएँ 

हत्यारे वहां  नहीं होते 
जहाँ  होती  है   हत्या 
हत्यारे  सदैव  होते है  हमारे आसपास 
हत्यारे  पहचाने नहीं जाते 


हत्यारे हमारे सामने  से 
गुजर  जाते है हाथ बांधें
हम नतमस्तक  रहते हैं 
हत्यारों  के प्रति

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मंगलवार, 22 सितंबर 2009

कविता 
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हत्यारे  नहीं  देखते  स्वप्न
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हत्यारों  के  चेहरों  पर 
होती है विनम्र  हंसी 
हत्यारे  कभी हत्या नहीं  करते 

हत्यारे निर्भय  हो कर 
घूमते  है शहर  की सड़कों पर 
हत्यारों  के हाथों में नहीं होते हथियार 

हत्यारों की कमीज़  के कालर
पर  नहीं होता मैल
वे पहनते  है उजले कपडे 
उनके हाथ  होते है बेदाग और साफ़ 

हत्यारों  को रात  भर 
नींद नहीं आती 
हत्यारे नहीं देखते स्वप्न 

हत्यारों का ज़िक्र  
होता है कविताओं में 
हत्यारे कविता नहीं  पढ़ते 
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रविवार, 20 सितंबर 2009

कविता 
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खिलौना   खरीदने से पहले 
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बार बार मेरे हाथ   
जाते है  कभी भालू की पीठ पर 
कभी बन्दर की नाक  पर 
और लौट आते है तेजी से  
जैसे किसी ने गडा दिए हों  नुकीले   दांत 

मैं कुछ झेंप   कर 
पूछने लगता हूँ दाम 
एरोप्लेन  या हेलिकोप्टर के 


मेरे सामने 
खिलौनों  की अदभुत  दुनिया है
सोती जागती  गुडिया  है 
और ख्यालों में है 
एक बच्चा -जिसने 
फरमाइश  की थी  एक गन  की 


अपने  दोनों  हाथ  पाकिट  में 
डाल कर दुकानदार की और देख 
मुस्कराते   हुए  मुझे  भी 
जरूरत  महसूस होती है 
एक  गन की 
कोई भी खिलौना  खरीदने से पहले
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सोमवार, 14 सितंबर 2009

बच्चा  हँसता  है  स्वप्नों  में 
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खिड़की  से आती  धूप  को 
बंद कर लेना चाहता मुट्ठी  में 

पापा  धूप पकड़ में क्यों  नहीं आती 
 पापा  हवा दिखाई क्यों  नहीं देती 
क्या पेड़ पर पत्तों  के हिलने से आती  हवा


बच्चे को गुस्सा आता है

पापा जवाब क्यों नहीं देते 
बच्चा पैर पटकता चला जाता है 
बाहर मैदान में 
पापा को कुछ नहीं आता 

बच्चा उड़ना  चाहता है 
चिडियों  की तरह 
बच्चा तैरना चाहता है 
मछलियों की तरह 
बच्चा पेड़ पर चढ़ना चाहता है 
गिलहरी  की तरह 

बच्चा सुनता  है कहानियां 
कभी आश्चर्य से 
फ़ैल जाती है उसकी आँखें 
कभी  भय से 
सिमट आता है पापा के पास 
कभी ख़ुशी से 
पीटता है तालियाँ 

बच्चा सवाली निगाहों से 
देखता है पापा को 
पर पूछता  कुछ  नहीं 
खुद ही डूब जाता है सवालों में 
और गढ़ता  है जवाब 

बच्चा सो जाता है 
पापा से चिपट  कर 

बच्चा  हँसता  स्वप्नों में 
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मंगलवार, 8 सितंबर 2009

जब वे बच्चे नहीं रहेगें

जब वे बच्चे  नहीं रहेगें 
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जब वे बच्चे नहीं  रहेगें 
तब वे तलाशेगें 
 वे रास्ते जहाँ से 
गुजरते थे दिन में कई कई बार 

उनकी आँखों में उभर आयेंगे 
एक साथ कई शहर 
पीले,हरे,सफ़ेद  मकान 
और बदलते  पडौसी 

यात्रा  दर  यात्रा 
बस की खिड़कियों से 
पीछे छूटते मकान 
खेत और गायें 
बस में 
मूंगफली बेचता लड़का 
झगड़ता  हुआ एक गंजा आदमी


जब बच्चे नहीं रहेगें 
तब वे भूल चुके होंगे 
स्कूल का रास्ता 
लेकिन याद रहेगी 
अंग्रेजी पढाने वाली टीचर 
जो दिखती थी परियों जैसी 


जब वे बच्चे नहीं रहेगें 
तब वे नहीं ढूंढ पाएंगे 
अपने उन दोस्तों को 
जिनके साथ खेलतेथे 
झगडा होने पर 
फाड़ दिया करते  थे 
एक दूसरे की कमीज़ 


जब वे बच्चे नहीं रहेगें 
तब उनके पास शेष रह जाएँगी  स्मर्तियाँ 
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बुधवार, 2 सितंबर 2009

कविता--- सोते हुए बच्चे


सोते हुए बच्चे
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सोते हुए बच्चे
कितने अच्छे लगते है
मासूम और प्यारे प्यारे

सोते हुए बच्चे
मां को आश्वस्त करते है

सोते हुए बच्चे
दूध नही मांगते
खिलोने नही मांगते
मां चिंता मुक्त रहती है

सोते हुए बच्चों को
स्कूल नही भेजना पड़ता
किताबे नही खरीदनी पड़ती
अच्छे कपड़े नही पहनाने पड़ते

मां को बच्चों के सवालों के
जवाब नही खोजने पड़ते

सोते हुए बच्चे
सड़कों पर नही घूमते
आवारा नही होते
भीख नही मांगते

सोते हुए बच्चे
रोते नही है
स्वप्न देख
नींद में हँसते है

मां उनको प्यार से
दुलारती है
आँख मूँद
बच्चों को बढता हुआ देखती है


कितना आनंद देते है
मां को सोते हुए बच्चे
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शनिवार, 29 अगस्त 2009

कविता --- माँ के आने पर बच्चा



माँ के आने पर बच्चा
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रिक्शे की आवाज़ पहचान
अपने नन्हे नन्हे पैरों से
दरवाजे की और बढ़ता है बच्चा

दरवाजे पर ही गोद में
उठा लेती है माँ
दोनों के शरीर में
एक अव्यक्त तरंग उठती है

बच्चा छूता है
माँ के गाल
होंठ, नाक और बाल
फिर नन्हे नन्हे हाथों से
पीटता है माँ को
भरता है किलकारी
चिपट जाता है छाती से

दिन भर कैसे रहता है
डेढ़ साल का बच्चा
माँ से अलग
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मंगलवार, 25 अगस्त 2009

कविता--जब बच्चे खेलते है

जब बच्चे खेलते है
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माएं चीखती रहती है
सारे दिन
बच्चें टंगे रहते छतो पर
दौड़ते रहते मैदानों में
उडाते रहते है पतंग

माएं बैठी रहती है
थाली में रोटी लिए
बच्चों को भूख नही लगती

माएं झींकती रहती है
बच्चे मिट्टी से सने हाथों से
मुंह में भर कर चावल हँसते रहते है

माँओं को चिंता है बच्चों की
बच्चे सोचते है
उस काले पिल्लै के बारे में
जिस की टांग दब गई थी
स्कूटर के नीचे


बच्चों को याद है
ढेर सारी कवितायें
बच्चे सुनना चाहते है
कहानियाँ और कहानियाँ

माएं आश्चर्य से भर उठती है
जब बच्चे खेलते है
घर घर का खेल

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शनिवार, 22 अगस्त 2009

कविता--बच्चे नही जानते


बच्चे नही जानते
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दबे पाँव आना किसे कहते है
ये जानती है ---- बिल्ली

चौकन्नी - बिना आवाज किए
आपके पास आकर बैठ जाती है-- बिल्ली


बिल्ली धैर्य से प्रतीक्षा करती है
घर की स्त्री के चूक जाने की

झन्न -----न्न -----न्न ------न
कोई बरतन गिरता है रसोई घर में

स्त्री समझ जाती है
आज फिर जीत गई ------- बिल्ली

बच्चे खुश होते है
बिल्ली को देख कर

बच्चे नही जानते
उनका दूध पी जाती है-------बिल्ली
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शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

कविता------बच्चे जानते है



बच्चे जानते है
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बच्चे जानते है
घर का अर्थ

बच्चे जानते है
हाथी के दांत
दिखाने के और
खाने के और होते है

हम बहुत कुछ
भूलते जा रहे है

बच्चे दिखाते है
हमें चिडिया घर का रास्ता
बच्चे लेजाते है
हमें हमारे बचपन में

बच्चे जोड़ते है हमें
घर से
परिवार से
दुनिया से
प्रकृति से

बच्चे ले जाते है
हमें अपने साथ स्वप्न लोक में

हम बहुत कुछ
भूलते जा रहे है


बच्चे जानते है
प्रेम का अर्थ
बच्चे सिखाते है
हमें प्रेम करना
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गुरुवार, 20 अगस्त 2009

कविता ------ जब बच्चे की खुलती है नींद


जब बच्चे की खुलती है नींद
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जब बच्चे की खुलती है नींद
वह विस्मित हो कर
देखता है चारों और

धीरे धीरे पहचानता है
दीवारों को
देखता है खिड़की और दरवाजे

माँ को देख कर
पुलक उठता है उसका मन
हाथ पैर मारता है - बच्चा

माँ की गोद में
मचलता है बच्चा
दूध की तलाश में
चिपट जाता है छातियों से

बच्चे की रोने की
आवाज़ से जाग जाता है घर


बच्चा यहाँ से
शुरू करता है
जीवन संघर्ष

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सोमवार, 17 अगस्त 2009

कविता ---- थोडी सी आदमियत


थोडी सी आदमीयत
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आदमी बाज़ार से
ले आया फल और सब्जियां
दे आया थोडी सी खुशियाँ

आदमी बाज़ार से
ले आया घी और तेल
दे आया थोड़ा सा स्वास्थ्य

आदमी बाज़ार से
ले आया रंगीन कपडे
दे आया थोड़ा सा नंगापन

आदमी बाज़ार से
ले आया गेहूं चावल और दाल
दे आया थोडी सी भूख

आदमी बाज़ार से
ले आया दवाईयां
दे आया थोड़ा सा जीवन

आदमी बाज़ार से
कुछ नहीं लाया
बचा लाया थोडी सी आदमीयत
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शनिवार, 8 अगस्त 2009

कविता --- दीवारों के पार कितनी धुप

दीवारों के पार कितनी धूप
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गेहूं, चावल, दाल
बीनते छानते
उसकी उम्र के कितने दिन
चुरा लिए समय ने
उसे अहसास भी नहीं हुआ

घर की चार दीवारी में
दिन रात चक्कर काटती
वह अल्हड लड़की भूल गई
दुनिया गोल है

उसे आता है
रोटी को गोलाई देना
तवे पर फिरकनी की तरह घुमाना

पाँच बरस में
उसने सीखा है
कम बोलना
ज्यादा सुनना
मुस्कुराना और सहना

उसकी शिक्षा
उपयोगी सिद्ध हो रही है
सब्जी और नमक के अनुपात में
चाय और चीनी के मिश्रण में

वह नंगी अँगुलियों से उठाती है
गर्म ढूध का भगोना
तलती है पकोडियां
मेहमानों के लिए
उसे खुशी होती है
बच्चों के लिए पराठा सेंकते हुए

कपडों को धूप देते हुए
उसने कभी नही सोचा
दीवारों के पार
कितनी धूप
बाकी है अभी
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शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

कविता


उस लड़की की हँसी
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उस खिलखिलाती लड़की की
तस्वीर कैद करलो
अपनी आंखों के कैमरे में

उस लड़की अल्हड़ता
उस लड़की की हँसी
उस लड़की का शर्माना
कैद करलो अपनी यादों में

कुछ दिनों के बाद
जब देखोगे किसी गृहणी को
कपडे धोते हुए , आटा गूंथते हुए
तब उसकी आंखों में , कुछ तलाश करोगे तुम

फिर कभी जब तुम देखोगे
किसी उदास औरत को
बाज़ार से सब्जी लाते हुए
दवाईयों की दुकान पर खड़े
अँगुलियों पर हिसाब लगाते हुए

तब तुम पहचान भी
नही पाओगे यह वही लड़की है
जिस की हँसी
आज भी गूंज रही है
तुम्हारे ख्याल में
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शनिवार, 18 जुलाई 2009

आधी सदी के सफर में


आधी सदी के सफर में
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आधी सदी के सफर में
हम रहे साथ साथ

इस शहर की कितनी गलियों में
कितनी बार घूमते रहे पैदल
सडकों पर दौड़ाते रहे साईकिल

चालीस मिनट से वह खड़ा था
सड़क के दायीं ओर
मै खड़ा था बायीं ओर
हम दोनों के बीच साठ फीट की दूरी थी

कभी वह मेरी दिशा में
कभी मै उसकी दिशा में
बढ़ने का प्रयास करते रहे
कई बार सड़क के बीचों बीच पहुँच गए
फिर लौट आए अपनी अपनी दिशाओं में

हमारी नजदीकियों के बीच
एक सैलाब था स्कूटर-कार
ऑटो ओर मिनी बसों का
भय था हादसों का

उम्र का तकाजा था
बीत चुकी थी आधी सदी

हम फिर बढे
बचते हुए वाहनों से
एक दूसरे की दिशा में
सोचा इतने बूढे भी नहीं है अभी
आख़िर मैंने उसे
खींच ही लिया हाथ पकड़ कर

बहुत देर तक हम
यूँ ही खडे रहे निशब्द
एक दूसरे का हाथ थामे
जैसे मिले हों पूरी सदी के बाद
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बुधवार, 15 जुलाई 2009

चापलूस

चापलूस
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चापलूसी करना एक कला है
मूर्खों के वश की बात नहीं
चतुर और चालाक ही
कर सकते है चापलूसी

चापलूस होते है शिष्ट और सभ्य
अभद्रता से पेश नहीं आते

चापलूस जानते है
कब गधे को बाप कहना चाहिए
कब बाप को गधा
उन्हें मालूम है गधे को
गधा कहना भी जरूरी है

अक्सर प्रशंसाकामी
घिरे रहते है चापलूसों से
कहते है उन्हें चापलूसी पसंद नहीं
चापलूस प्रभावित होते है उनके सिध्दान्त से
कलात्मकता से करते है प्रशंसा
प्रशंसाकामी गले से लगा लेते है चापलूस को


चापलूस बहुत कम दूरी रखते है
सच और झूठ में
एक झीनी सी चादर रखते है
अंधेरे और उजाले के बीच

रोने की तरह हँसते है
हंसने की तरह रोते है
उनकी एक आँख में होते है
खुशी के आंसू
दूसरी आँख में दुख के

हर युग में हुए है चापलूस
यदि चापलूस नहीं होते
बहुत से महान , महान नहीं होते

चापलूस किसी युग में असफल नहीं होते
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शनिवार, 11 जुलाई 2009

एक ही नगर में

एक ही नगर में पॉँच कवि
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एक ही नगर में रहते है पॉँच कवि
खूब प्रकाशित होते है
साहित्यिक पत्रिकाओं में
दूसरे नगर से देखने पर
समृद्ध लगता है ये नगर

एक ही नगर में रहते हुए
एक कवि को दूसरे कवि की ख़बर नहीं है
पहला कवि नहीं जानता
दूसरे कवि ने बदल लिया है मकान
दूसरा कवि नहीं जानता
तीसरा कवि भर्ती है अस्पताल में
चौथा कवि किसी अन्य को कवि नहीं मानता
पांचवा कवि अब भी
कभी कभी जाता है कॉफी हाउस

पांचों कवि मिलते है अपने ही नगर में
किसी साहित्यिक समारोह में
जिसमे मुख्य अतिथि होते है
राजधानी से आए नामवर आलोचक
किसी काव्य संग्रह का लोकार्पण
करने आए साहित्यिक पत्रिका के संपादक
कोई चर्चित विवादित लेखक

अपने ही नगर में पांचो कवि
इस तरह मिलते है गले
जैसे मिले हों वर्षों बाद
आए हों दूसरे नगर से
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मंगलवार, 7 जुलाई 2009

मोबाइल

मोबाइल
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माचिस की दो खाली डिब्बियों के बीच
एक लंबा धागा बाँध कर
दो छोर पर खड़े हो जाते है दो बच्चे

पहले छोर से
बच्चा माचिस की डिब्बी को
कान से सटाकर कहता है - हलो
दूसरे छोर से दूसरा बच्चा
उस ही अंदाज में बोलता है
हाँ - कौन बोल रहा है

फिर बहुत देर तक चलता रहता है संवाद
दोनों बच्चे महसूस करते है कि
वास्तव में उनको आवाज
एक दूसरे तक बीच के धागे के
माध्यम से ही आ रही है

संवाद करते करते दोनों बच्चे
बड़े होजाते है
दोनों बच्चों कीजेब में
माचिस की खाली डिब्बियों की जगह
रखें है मोबाइल

आज भी दोनों छोरों से
देर तक चलता रहता है संवाद
किंतु अब दोनों छोरों के
बीच का धागा टूट गया है
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शनिवार, 4 जुलाई 2009

गर्मियों की रातों में

गर्मियों की रातों में
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इन दिनों कम ही नज़र
उठती है आकाश की ओर
कई वर्ष हुए मैंने
शुभ्र - निरभ्र तारों से आच्छादित
आकाश नहीं देखा
नही देखा मैंने चाँद को घटते बढ़ते
पूर्ण चंद्रमा में
चरखा कातती बुढिया को नहीं देखा


अब रात को नींद आने से पहले

कमरें की छत पर
चलता पंखा दिखाई देता है
या- सामने की दीवार पर टंगी

टिक-टिक करती घड़ी

गर्मियों की वे राते
जब मै सोता था छत पर
कितनी अलग थी इन रातों से


सूर्यास्त होने पर
पानी की भरी बाल्टियों से
छिडकाव करने के बाद
चल- पहल बढ़ जाती थी छत पर

अँधेरा बढ़ने के साथ
कम होता जाता था शोर
बरगद के पेड़ के पीछे से
उठने लगता चाँद
बिस्तर पर लेटे -लेटे
एक टक देखता रहता
चाँद और चाँद में छुपी आकृतियाँ

तारों से भरे नीले आकाश में
उत्तर दिशा में संगति बिठाता
सप्तरिशी मंडल की
आसपास ही सबसे तेज चमकते
ध्रुव तारे को खोजते हुए
कब नींद आजाती मालूम नहीं

गर्मियों की रातों में छत पर सोते हुए

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