शुक्रवार, 24 जुलाई 2009
कविता
उस लड़की की हँसी
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उस खिलखिलाती लड़की की
तस्वीर कैद करलो
अपनी आंखों के कैमरे में
उस लड़की अल्हड़ता
उस लड़की की हँसी
उस लड़की का शर्माना
कैद करलो अपनी यादों में
कुछ दिनों के बाद
जब देखोगे किसी गृहणी को
कपडे धोते हुए , आटा गूंथते हुए
तब उसकी आंखों में , कुछ तलाश करोगे तुम
फिर कभी जब तुम देखोगे
किसी उदास औरत को
बाज़ार से सब्जी लाते हुए
दवाईयों की दुकान पर खड़े
अँगुलियों पर हिसाब लगाते हुए
तब तुम पहचान भी
नही पाओगे यह वही लड़की है
जिस की हँसी
आज भी गूंज रही है
तुम्हारे ख्याल में
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शनिवार, 18 जुलाई 2009
आधी सदी के सफर में
आधी सदी के सफर में
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आधी सदी के सफर में
हम रहे साथ साथ
इस शहर की कितनी गलियों में
कितनी बार घूमते रहे पैदल
सडकों पर दौड़ाते रहे साईकिल
चालीस मिनट से वह खड़ा था
सड़क के दायीं ओर
मै खड़ा था बायीं ओर
हम दोनों के बीच साठ फीट की दूरी थी
कभी वह मेरी दिशा में
कभी मै उसकी दिशा में
बढ़ने का प्रयास करते रहे
कई बार सड़क के बीचों बीच पहुँच गए
फिर लौट आए अपनी अपनी दिशाओं में
हमारी नजदीकियों के बीच
एक सैलाब था स्कूटर-कार
ऑटो ओर मिनी बसों का
भय था हादसों का
उम्र का तकाजा था
बीत चुकी थी आधी सदी
हम फिर बढे
बचते हुए वाहनों से
एक दूसरे की दिशा में
सोचा इतने बूढे भी नहीं है अभी
आख़िर मैंने उसे
खींच ही लिया हाथ पकड़ कर
बहुत देर तक हम
यूँ ही खडे रहे निशब्द
एक दूसरे का हाथ थामे
जैसे मिले हों पूरी सदी के बाद
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बुधवार, 15 जुलाई 2009
चापलूस
चापलूस
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चापलूसी करना एक कला है
मूर्खों के वश की बात नहीं
चतुर और चालाक ही
कर सकते है चापलूसी
चापलूस होते है शिष्ट और सभ्य
अभद्रता से पेश नहीं आते
चापलूस जानते है
कब गधे को बाप कहना चाहिए
कब बाप को गधा
उन्हें मालूम है गधे को
गधा कहना भी जरूरी है
अक्सर प्रशंसाकामी
घिरे रहते है चापलूसों से
कहते है उन्हें चापलूसी पसंद नहीं
चापलूस प्रभावित होते है उनके सिध्दान्त से
कलात्मकता से करते है प्रशंसा
प्रशंसाकामी गले से लगा लेते है चापलूस को
चापलूस बहुत कम दूरी रखते है
सच और झूठ में
एक झीनी सी चादर रखते है
अंधेरे और उजाले के बीच
रोने की तरह हँसते है
हंसने की तरह रोते है
उनकी एक आँख में होते है
खुशी के आंसू
दूसरी आँख में दुख के
हर युग में हुए है चापलूस
यदि चापलूस नहीं होते
बहुत से महान , महान नहीं होते
चापलूस किसी युग में असफल नहीं होते
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चापलूसी करना एक कला है
मूर्खों के वश की बात नहीं
चतुर और चालाक ही
कर सकते है चापलूसी
चापलूस होते है शिष्ट और सभ्य
अभद्रता से पेश नहीं आते
चापलूस जानते है
कब गधे को बाप कहना चाहिए
कब बाप को गधा
उन्हें मालूम है गधे को
गधा कहना भी जरूरी है
अक्सर प्रशंसाकामी
घिरे रहते है चापलूसों से
कहते है उन्हें चापलूसी पसंद नहीं
चापलूस प्रभावित होते है उनके सिध्दान्त से
कलात्मकता से करते है प्रशंसा
प्रशंसाकामी गले से लगा लेते है चापलूस को
चापलूस बहुत कम दूरी रखते है
सच और झूठ में
एक झीनी सी चादर रखते है
अंधेरे और उजाले के बीच
रोने की तरह हँसते है
हंसने की तरह रोते है
उनकी एक आँख में होते है
खुशी के आंसू
दूसरी आँख में दुख के
हर युग में हुए है चापलूस
यदि चापलूस नहीं होते
बहुत से महान , महान नहीं होते
चापलूस किसी युग में असफल नहीं होते
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शनिवार, 11 जुलाई 2009
एक ही नगर में
एक ही नगर में पॉँच कवि
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एक ही नगर में रहते है पॉँच कवि
खूब प्रकाशित होते है
साहित्यिक पत्रिकाओं में
दूसरे नगर से देखने पर
समृद्ध लगता है ये नगर
एक ही नगर में रहते हुए
एक कवि को दूसरे कवि की ख़बर नहीं है
पहला कवि नहीं जानता
दूसरे कवि ने बदल लिया है मकान
दूसरा कवि नहीं जानता
तीसरा कवि भर्ती है अस्पताल में
चौथा कवि किसी अन्य को कवि नहीं मानता
पांचवा कवि अब भी
कभी कभी जाता है कॉफी हाउस
पांचों कवि मिलते है अपने ही नगर में
किसी साहित्यिक समारोह में
जिसमे मुख्य अतिथि होते है
राजधानी से आए नामवर आलोचक
किसी काव्य संग्रह का लोकार्पण
करने आए साहित्यिक पत्रिका के संपादक
कोई चर्चित विवादित लेखक
अपने ही नगर में पांचो कवि
इस तरह मिलते है गले
जैसे मिले हों वर्षों बाद
आए हों दूसरे नगर से
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एक ही नगर में रहते है पॉँच कवि
खूब प्रकाशित होते है
साहित्यिक पत्रिकाओं में
दूसरे नगर से देखने पर
समृद्ध लगता है ये नगर
एक ही नगर में रहते हुए
एक कवि को दूसरे कवि की ख़बर नहीं है
पहला कवि नहीं जानता
दूसरे कवि ने बदल लिया है मकान
दूसरा कवि नहीं जानता
तीसरा कवि भर्ती है अस्पताल में
चौथा कवि किसी अन्य को कवि नहीं मानता
पांचवा कवि अब भी
कभी कभी जाता है कॉफी हाउस
पांचों कवि मिलते है अपने ही नगर में
किसी साहित्यिक समारोह में
जिसमे मुख्य अतिथि होते है
राजधानी से आए नामवर आलोचक
किसी काव्य संग्रह का लोकार्पण
करने आए साहित्यिक पत्रिका के संपादक
कोई चर्चित विवादित लेखक
अपने ही नगर में पांचो कवि
इस तरह मिलते है गले
जैसे मिले हों वर्षों बाद
आए हों दूसरे नगर से
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मंगलवार, 7 जुलाई 2009
मोबाइल
मोबाइल
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माचिस की दो खाली डिब्बियों के बीच
एक लंबा धागा बाँध कर
दो छोर पर खड़े हो जाते है दो बच्चे
पहले छोर से
बच्चा माचिस की डिब्बी को
कान से सटाकर कहता है - हलो
दूसरे छोर से दूसरा बच्चा
उस ही अंदाज में बोलता है
हाँ - कौन बोल रहा है
फिर बहुत देर तक चलता रहता है संवाद
दोनों बच्चे महसूस करते है कि
वास्तव में उनको आवाज
एक दूसरे तक बीच के धागे के
माध्यम से ही आ रही है
संवाद करते करते दोनों बच्चे
बड़े होजाते है
दोनों बच्चों कीजेब में
माचिस की खाली डिब्बियों की जगह
रखें है मोबाइल
आज भी दोनों छोरों से
देर तक चलता रहता है संवाद
किंतु अब दोनों छोरों के
बीच का धागा टूट गया है
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माचिस की दो खाली डिब्बियों के बीच
एक लंबा धागा बाँध कर
दो छोर पर खड़े हो जाते है दो बच्चे
पहले छोर से
बच्चा माचिस की डिब्बी को
कान से सटाकर कहता है - हलो
दूसरे छोर से दूसरा बच्चा
उस ही अंदाज में बोलता है
हाँ - कौन बोल रहा है
फिर बहुत देर तक चलता रहता है संवाद
दोनों बच्चे महसूस करते है कि
वास्तव में उनको आवाज
एक दूसरे तक बीच के धागे के
माध्यम से ही आ रही है
संवाद करते करते दोनों बच्चे
बड़े होजाते है
दोनों बच्चों कीजेब में
माचिस की खाली डिब्बियों की जगह
रखें है मोबाइल
आज भी दोनों छोरों से
देर तक चलता रहता है संवाद
किंतु अब दोनों छोरों के
बीच का धागा टूट गया है
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शनिवार, 4 जुलाई 2009
गर्मियों की रातों में
गर्मियों की रातों में
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इन दिनों कम ही नज़र
उठती है आकाश की ओर
कई वर्ष हुए मैंने
शुभ्र - निरभ्र तारों से आच्छादित
आकाश नहीं देखा
नही देखा मैंने चाँद को घटते बढ़ते
पूर्ण चंद्रमा में
चरखा कातती बुढिया को नहीं देखा
अब रात को नींद आने से पहले
कमरें की छत पर
चलता पंखा दिखाई देता है
या- सामने की दीवार पर टंगी
टिक-टिक करती घड़ी
गर्मियों की वे राते
जब मै सोता था छत पर
कितनी अलग थी इन रातों से
सूर्यास्त होने पर
पानी की भरी बाल्टियों से
छिडकाव करने के बाद
चल- पहल बढ़ जाती थी छत पर
अँधेरा बढ़ने के साथ
कम होता जाता था शोर
बरगद के पेड़ के पीछे से
उठने लगता चाँद
बिस्तर पर लेटे -लेटे
एक टक देखता रहता
चाँद और चाँद में छुपी आकृतियाँ
तारों से भरे नीले आकाश में
उत्तर दिशा में संगति बिठाता
सप्तरिशी मंडल की
आसपास ही सबसे तेज चमकते
ध्रुव तारे को खोजते हुए
कब नींद आजाती मालूम नहीं
गर्मियों की रातों में छत पर सोते हुए
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इन दिनों कम ही नज़र
उठती है आकाश की ओर
कई वर्ष हुए मैंने
शुभ्र - निरभ्र तारों से आच्छादित
आकाश नहीं देखा
नही देखा मैंने चाँद को घटते बढ़ते
पूर्ण चंद्रमा में
चरखा कातती बुढिया को नहीं देखा
अब रात को नींद आने से पहले
कमरें की छत पर
चलता पंखा दिखाई देता है
या- सामने की दीवार पर टंगी
टिक-टिक करती घड़ी
गर्मियों की वे राते
जब मै सोता था छत पर
कितनी अलग थी इन रातों से
सूर्यास्त होने पर
पानी की भरी बाल्टियों से
छिडकाव करने के बाद
चल- पहल बढ़ जाती थी छत पर
अँधेरा बढ़ने के साथ
कम होता जाता था शोर
बरगद के पेड़ के पीछे से
उठने लगता चाँद
बिस्तर पर लेटे -लेटे
एक टक देखता रहता
चाँद और चाँद में छुपी आकृतियाँ
तारों से भरे नीले आकाश में
उत्तर दिशा में संगति बिठाता
सप्तरिशी मंडल की
आसपास ही सबसे तेज चमकते
ध्रुव तारे को खोजते हुए
कब नींद आजाती मालूम नहीं
गर्मियों की रातों में छत पर सोते हुए
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गुरुवार, 2 जुलाई 2009
चिड़ियों से संवाद करती स्त्री
चिडियों से संवाद करती स्त्री
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अपने घर के छोटे से बगीचे में
जहाँ लगा रखे थे कुछ पेड़ पौधे
बाँध रखा था एक परिंडा
वह स्त्री सूरज निकलने से पहले
परिवार की नींद खुलने पहले
भोर में चिडियों से बात चीत करती
सुनाती अपने , सुनती उनके हाल
तिनकों की तलाश में जाने से पहले
रंगबिरंगी चिडियां
उस स्त्री के इर्द गिर्द फुदकती रहती
स्त्री व्दारा आटेकी छोटी छोटी
बिखराई गई गोलियों को अपनी
चोंच में दबाती हुई चिडियां
कभी स्त्री के कंधों पर चढ़ जाती
कभी बैठ जाती सिर पर
उस प्रोढ़ स्त्री ने
निकाल रखे थे चिडियों के नाम
सोनपंखी , नीलकंठी ,जैसे नामों के साथ
कालीकलूटी जैसा नाम भी था
वह स्त्री कभी डांट भी देती थी चिडियों को
नाराज़ भी होजाती थी उनसे
थोडी ही देर में उनके मधुर गान पर
रीझ भी जाती थी
उस स्त्री ने देखे थे कई पतझर
चिडियों की व्यथा समझती थी
चिडियों से पूछती तुम खुश तो हो
चिडियों को अपने दुख भी बताती
चिडियां सांत्वना देती उस स्त्री को
स्त्री समझती थी चिडियों की भाषा
चिडियां समझती थी
स्त्री का दुख सदियों से
काम पर जाने से पहले
चिडियां अनुमति मांगती स्त्री से
स्त्री फुर्र --- फुर्र --- कहती उडा देती चिडियों को
एक और दिन में डूब जाने के लिए
एक और रात में समा जाने के लिए
चिडियां उड़ जाती
ओझल हो जाती स्त्री की आंखों से
कल फिर आने के लिए
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अपने घर के छोटे से बगीचे में
जहाँ लगा रखे थे कुछ पेड़ पौधे
बाँध रखा था एक परिंडा
वह स्त्री सूरज निकलने से पहले
परिवार की नींद खुलने पहले
भोर में चिडियों से बात चीत करती
सुनाती अपने , सुनती उनके हाल
तिनकों की तलाश में जाने से पहले
रंगबिरंगी चिडियां
उस स्त्री के इर्द गिर्द फुदकती रहती
स्त्री व्दारा आटेकी छोटी छोटी
बिखराई गई गोलियों को अपनी
चोंच में दबाती हुई चिडियां
कभी स्त्री के कंधों पर चढ़ जाती
कभी बैठ जाती सिर पर
उस प्रोढ़ स्त्री ने
निकाल रखे थे चिडियों के नाम
सोनपंखी , नीलकंठी ,जैसे नामों के साथ
कालीकलूटी जैसा नाम भी था
वह स्त्री कभी डांट भी देती थी चिडियों को
नाराज़ भी होजाती थी उनसे
थोडी ही देर में उनके मधुर गान पर
रीझ भी जाती थी
उस स्त्री ने देखे थे कई पतझर
चिडियों की व्यथा समझती थी
चिडियों से पूछती तुम खुश तो हो
चिडियों को अपने दुख भी बताती
चिडियां सांत्वना देती उस स्त्री को
स्त्री समझती थी चिडियों की भाषा
चिडियां समझती थी
स्त्री का दुख सदियों से
काम पर जाने से पहले
चिडियां अनुमति मांगती स्त्री से
स्त्री फुर्र --- फुर्र --- कहती उडा देती चिडियों को
एक और दिन में डूब जाने के लिए
एक और रात में समा जाने के लिए
चिडियां उड़ जाती
ओझल हो जाती स्त्री की आंखों से
कल फिर आने के लिए
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