सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

कविता
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दूसरे  शहर  में 
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दूसरे  शहर  में  घर नहीं होता 
समाचार  पत्र  में नहीं मिलते 
अपने शहर के समाचार 


दूसरे शहर में 
सड़क   पर  चलते  हुए 
ये अहसास  साथ चलता 
यहाँ  इस  शहर में 
मुझे कोई नहीं पहचानता 


घर से  दूर

अधिक याद  आता  है घर 
बार बार याद आते है बच्चे 
लौट  आयें होगें स्कूल  से 
खेल रहे होंगें  शायद 
पूछ  रहे होंगे  मम्मी  से 
कल  सुबह तो आ ही जायेगें पापा 


दूसरे शहर में ठण्ड 
अधिक लगती  है 
थक जाता हूँ  बहुत जल्दी 
दूसरे शहर में 
मुझे नींद नहीं आती 


रहता है पेट ख़राब 
खाना कम खाता हूँ 
सिगरेट  ज्यादा  पीता हूँ 

दूसरे  शहर की इमारते 
लगती है अजायबघर 
लड़कियां  लगती है खूबसूरत 
दूसरा शहर लगता है 
दूसरे देश में 


दूसरे शहर से 
अपना शहर लगता है 
बहुत दूर   


दूसरे शहर से  
लौट कर अच्छा  लगता है 
नक्शे  में ढूँढना 
दूसरा  शहर 
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शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

कविता 
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तस्वीरों  से झांकते  पुराने मित्र 
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श्वेत श्याम तस्वीरों में 
अभी मौजूद है पुराने मित्र 
गले  में        बांहे डाले या 
कंधे पर कुहनी टिकाये

तस्वीरें  देख कर नहीं लगता 
बरसों से नहीं मिले होगें 
ये मासूम  से दिखने वाले 
दुबले पतले छोकरे 

तस्वीरों से बाहर 
मिलना नहीं होता पुराने मित्रों से 
कुछ एक को तो देखे हुए  भी 
पन्द्रह बीस साल गुजर गए 
एक शहर में रहते हुए भी 


कभी कभार  कहीं से 
खबर मिलती किसी की 
आकाश की मुत्यु   को दो साल होगये 
विमल बहुत शराब पीने लगा है 
श्याम बाबू दुबई  में है इन दिनों 


अचकचा  गया एक दिन 
अजमेरी गेट  पर अंडे खरीदते  हुए 
एक मोटे आदमी को देख कर 
प्रमोद हंस रहा था मुझे पहचान कर 
महानगर  होते        शहर में 

ऐसा  कभी ही होता है 
कोई आपको पहचान रहा हो 


ये सोच कर उदास हो जाता है मन 
जिन मित्रों के साथ जमती थी महफ़िल 
मिलते  थे हर रोज़ 
घंटों खड़े रहते थे चौराहे  पर 
वे बचपन के मित्र जीवन से निकल कर 
तस्वीरों में  रह गए है

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शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

कविता 
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नींद  में  स्त्री 
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कई  हज़ार वर्षों  से 
नींद  में जाग  रही है  वह  स्त्री 
नींद में  भर रही है  पानी 
नींद   में  बना  रही व्यंजन 
नींद में बच्चों को 
खिला रही है  चावल 


कई हज़ार वर्षों से 
नींद  में  कर रही  है प्रेम 


पूरे परिवार के कपडे धोते हुए 
जूठे  बर्तन साफ़ करते  हुए 
थकती नहीं है वह स्त्री 
हजारों मील नींद में  चलते हुए 


जब पूरा परिवार 
सो जाता है संतुष्ट  हो कर 
तब अँधेरे  में 
अकेली बिल्कुल अकेली 
नींद में जागती  रहती है वह स्त्री 
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मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

कविता 
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काम  से लौटती  स्त्रियाँ       
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जिस तरह हवाओं  में 
लौटती है  खुशबू       
पेडों पर लौटती  है चिडियां 
शाम  को घरों को 
लौटती है काम पर गई स्त्रियाँ 


सारा दिन बदन पर 
निगाहों  की चुभन  महसूस करती 
फूहड़ और अश्लील चुटकुलों से ऊबी 
शाम को  घरों को 
लौटती है काम पर गई  स्त्रियाँ 


उदास  बच्चों के लिया टाफियाँ 
उदासीन  पतियों  के लिए 
सिगरेट  के पैकेट  खरीदती 
शाम को घरों को 
लौटती है काम पर गई स्त्रियाँ 


काम पर गई  स्त्रियों के साथ 
लौटता है  घरेलूपन 
चूल्हों  में लौटती है आग 
दीयों में लौटती है रोशनी
बच्चों  लौटती है हंसी 
पुरुषों में लौटता है  पौरुष 


आकाश  अपनी जगह 
दिखाई देता है 
पृथ्वी घूमती है 
अपनी धुरी पर 
जब शाम को घरों को 
लौटती  है काम पर गई स्त्रियाँ 
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