शनिवार, 29 अगस्त 2009

कविता --- माँ के आने पर बच्चा



माँ के आने पर बच्चा
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रिक्शे की आवाज़ पहचान
अपने नन्हे नन्हे पैरों से
दरवाजे की और बढ़ता है बच्चा

दरवाजे पर ही गोद में
उठा लेती है माँ
दोनों के शरीर में
एक अव्यक्त तरंग उठती है

बच्चा छूता है
माँ के गाल
होंठ, नाक और बाल
फिर नन्हे नन्हे हाथों से
पीटता है माँ को
भरता है किलकारी
चिपट जाता है छाती से

दिन भर कैसे रहता है
डेढ़ साल का बच्चा
माँ से अलग
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मंगलवार, 25 अगस्त 2009

कविता--जब बच्चे खेलते है

जब बच्चे खेलते है
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माएं चीखती रहती है
सारे दिन
बच्चें टंगे रहते छतो पर
दौड़ते रहते मैदानों में
उडाते रहते है पतंग

माएं बैठी रहती है
थाली में रोटी लिए
बच्चों को भूख नही लगती

माएं झींकती रहती है
बच्चे मिट्टी से सने हाथों से
मुंह में भर कर चावल हँसते रहते है

माँओं को चिंता है बच्चों की
बच्चे सोचते है
उस काले पिल्लै के बारे में
जिस की टांग दब गई थी
स्कूटर के नीचे


बच्चों को याद है
ढेर सारी कवितायें
बच्चे सुनना चाहते है
कहानियाँ और कहानियाँ

माएं आश्चर्य से भर उठती है
जब बच्चे खेलते है
घर घर का खेल

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शनिवार, 22 अगस्त 2009

कविता--बच्चे नही जानते


बच्चे नही जानते
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दबे पाँव आना किसे कहते है
ये जानती है ---- बिल्ली

चौकन्नी - बिना आवाज किए
आपके पास आकर बैठ जाती है-- बिल्ली


बिल्ली धैर्य से प्रतीक्षा करती है
घर की स्त्री के चूक जाने की

झन्न -----न्न -----न्न ------न
कोई बरतन गिरता है रसोई घर में

स्त्री समझ जाती है
आज फिर जीत गई ------- बिल्ली

बच्चे खुश होते है
बिल्ली को देख कर

बच्चे नही जानते
उनका दूध पी जाती है-------बिल्ली
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शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

कविता------बच्चे जानते है



बच्चे जानते है
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बच्चे जानते है
घर का अर्थ

बच्चे जानते है
हाथी के दांत
दिखाने के और
खाने के और होते है

हम बहुत कुछ
भूलते जा रहे है

बच्चे दिखाते है
हमें चिडिया घर का रास्ता
बच्चे लेजाते है
हमें हमारे बचपन में

बच्चे जोड़ते है हमें
घर से
परिवार से
दुनिया से
प्रकृति से

बच्चे ले जाते है
हमें अपने साथ स्वप्न लोक में

हम बहुत कुछ
भूलते जा रहे है


बच्चे जानते है
प्रेम का अर्थ
बच्चे सिखाते है
हमें प्रेम करना
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गुरुवार, 20 अगस्त 2009

कविता ------ जब बच्चे की खुलती है नींद


जब बच्चे की खुलती है नींद
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जब बच्चे की खुलती है नींद
वह विस्मित हो कर
देखता है चारों और

धीरे धीरे पहचानता है
दीवारों को
देखता है खिड़की और दरवाजे

माँ को देख कर
पुलक उठता है उसका मन
हाथ पैर मारता है - बच्चा

माँ की गोद में
मचलता है बच्चा
दूध की तलाश में
चिपट जाता है छातियों से

बच्चे की रोने की
आवाज़ से जाग जाता है घर


बच्चा यहाँ से
शुरू करता है
जीवन संघर्ष

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सोमवार, 17 अगस्त 2009

कविता ---- थोडी सी आदमियत


थोडी सी आदमीयत
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आदमी बाज़ार से
ले आया फल और सब्जियां
दे आया थोडी सी खुशियाँ

आदमी बाज़ार से
ले आया घी और तेल
दे आया थोड़ा सा स्वास्थ्य

आदमी बाज़ार से
ले आया रंगीन कपडे
दे आया थोड़ा सा नंगापन

आदमी बाज़ार से
ले आया गेहूं चावल और दाल
दे आया थोडी सी भूख

आदमी बाज़ार से
ले आया दवाईयां
दे आया थोड़ा सा जीवन

आदमी बाज़ार से
कुछ नहीं लाया
बचा लाया थोडी सी आदमीयत
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शनिवार, 8 अगस्त 2009

कविता --- दीवारों के पार कितनी धुप

दीवारों के पार कितनी धूप
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गेहूं, चावल, दाल
बीनते छानते
उसकी उम्र के कितने दिन
चुरा लिए समय ने
उसे अहसास भी नहीं हुआ

घर की चार दीवारी में
दिन रात चक्कर काटती
वह अल्हड लड़की भूल गई
दुनिया गोल है

उसे आता है
रोटी को गोलाई देना
तवे पर फिरकनी की तरह घुमाना

पाँच बरस में
उसने सीखा है
कम बोलना
ज्यादा सुनना
मुस्कुराना और सहना

उसकी शिक्षा
उपयोगी सिद्ध हो रही है
सब्जी और नमक के अनुपात में
चाय और चीनी के मिश्रण में

वह नंगी अँगुलियों से उठाती है
गर्म ढूध का भगोना
तलती है पकोडियां
मेहमानों के लिए
उसे खुशी होती है
बच्चों के लिए पराठा सेंकते हुए

कपडों को धूप देते हुए
उसने कभी नही सोचा
दीवारों के पार
कितनी धूप
बाकी है अभी
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