सोमवार, 30 मई 2011

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता


कवितायेँ 
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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
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हम किसी को 
कुछ भी कह सकते है 
ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  है 
कोई हमें कुछ भी कह दे 
ये मानहानि  है हमारी 
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सहिष्णुता 
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कोई हमारी प्रशंसा करे 
चाहे झूठा  ही गुणगान करे 
 इतना तो सहन कर सकते है हम 

कोई आलोचना करे 
और  हम चुप बैठ जाएँ 
इतने भी सहिष्णु  नहीं है हम 
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स्वाभिमानी 
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जहाँ से हमें 
कुछ  प्राप्त नहीं हो रहा 
उनकी  क्यों सुने 
आखिर स्वाभिमानी  है हम 

जहाँ से हमें 
कुछ प्राप्त हो रहा है 
उनकी गाली भी सुन लेते है 
ये विनम्रता   है हमारी 
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अपने को जानना 
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अपने अन्दर झांको 
अपने को पहचानो 

पहले वे अपने को 
दूसरों की दृष्टि  से देखते थे 

अपने अन्दर झांकना 
शुरू किया   
अपने को पहचानना 
शुरू किया 

जब से स्वयं   को  जाना है 
अपने को   पहचाना   है               
बेहद दुखी है वे 
कितने   प्रतिभाशाली  है                   
आज तक किसी ने नहीं पहचाना 

सच  स्वयं को 
 स्वयं ही जानना पड़ता है 
 इस स्वार्थी  संसार में 
कौन,किसी को पहचानता है 
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आकाश में कुहरा घना है   
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बेईमान को मत कहो 
बेईमान 
भ्रष्टाचारी  को मत कहो 
भ्रष्ट 
व्यभिचारी को मत कहो 
अनैतिक 

सब की प्रशंसा  करो या 
चुप रहो 
अपने मुंह से
क्यों किसी को  
बुरा कहो 

यदि आपको 
प्राप्त  करा है सम्मान 
सब का सम्मान करो 

बचाए रखनी है 
अपनी प्रतिष्ठा 
सब का गुणगान करो 

किसी की कमी बताना 
व्यक्तिगत आलोचना है 

दुष्यंत कुमार के शब्दों में 
मत कहो 
आकाश में कुहरा घना है 
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[ 'शुक्रवार' २०-२६ मई २०११ में प्रकाशित]





  


गुरुवार, 12 मई 2011

साइकिल में बम

कविता  
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साईकिल   में  बम 
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पच्चीस  बरस पहले मैंने 
साईकिल चलाना  छोड़ कर 
खरीद ली  मोटर साईकिल 
काली साईकिल से 
काली  मोटर साईकिल पर आ गया 

मोटर साईकिल पर बैठ कर 
उड़ने का मज़ा 
कुछ और ही आया 
पर साईकिल जैसा आनंद  नहीं आया 

कही भी किसी भी गली में घूमा  लेना 
कही भी रोक कर खड़े हो जाना 
साईकिल का  हैंडिल पकडे पकडे 
पैदल पैदल घूम लेना 
मोटर साईकिल  में वैसी  सुविधा कंहाँ

किसी दोस्त या रिश्तेदार  के 
घर जाने पर , गली में 
दीवार  के सहारे  खड़ी कर दी 
या घर के अन्दर  तक ले गए 
बिना ताले के भी खड़ी रहती साईकिल 
तो चिंता की बात नहीं थी 

एक दिन मैटनी  शो में 
देर हो जाने पर , हड़बड़ी में 
पोलोविक्ट्री  सिनेमा की 
सीढ़ियों  पर साईकिल खड़ी कर दी 
टिकिट  विंडो  से सीधा 
हॉल  में  घुस  गया 

ढाई  घंटे तक, इंटरवेल  में भी 
साईकिल की याद नहीं आई 
फिल्म का  दी  एंड  होने पर 
ध्यान आया कि 
अरे, मैंने साईकिल तो 
स्टैंड  पर रखी ही नहीं थी 

दौड़ कर बहार आया 
देखा, साईकिल आराम से 
सीढियों  के नीचे खड़ी 
प्रतीक्षा  कर रही थी  मेरी 
मैंने साईकिल छुआ  तो 
साईकिल ने पूछा कैसी लगी  फिल्म 
फिल्म लाजवाब  थी 

हम बेखुदी में 
तुम को पुकारे  चले गए 

उन दिनों  साइकिले 
हवा से नहीं 
आदमी से भी 
बातें  किया करती थी 
ये तब कि बात है जिन दिनों 
साईकिल के छर्रे 
बम बनाने  के काम में नहीं लिए जाते थे 

एक शाम  चाँदपोल  में 
हनुमान जी  के मंदिर के बाहर
साईकिल खड़ी कर 
प्याऊ  पर पानी पीने  रूका 
पानी पी कर , पता नहीं 
किस धुन  में  घर पैदल ही चला आया 

सुबह जब घर से निकला 
साईकिल वहां नहीं थी 
जहाँ  उसे होना था 
घर में कहीं नहीं थी साईकिल 
परेशान, हैरान , दोस्तों के घर गया 
वहां वहां  गया 
जहाँ जहाँ  गया था कल 

पूरा दिन गुज़र गया 
कहीं नहीं मिली साईकिल 
मैं उदास  हो गया 
मुझे साईकिल से प्रेम था 

मां ने मेरी उदासी भांप  कर कहा 
हनुमान जी के लड्डू  चढ़ा  आ 
मिल जाएगी  साईकिल 

हनुमान जी का नाम सुनते ही 
मैं  चौंका  
दौड़  पड़ा मंदिर कि और 
वहां जा कर देखा 
प्याऊ  के पास 
बिजली  के खम्बे  के सहारे 
उदास खड़ी थी साईकिल 

चौबीस  घंटे  से एक ही मुद्रा में खड़ी 
साईकिल  नाराज़  लगी 
जैसे कह रही हो 
तुम्हारी, ये भूल  जाने की आदत  ठीक नहीं 
तब साईकिल  के कैरियर  पर लगे बस्तों में 
बम रखने की  सोच पैदा नहीं  हुई  थी 

पुरानी साईकिल की याद करते हुए 
पिछले दिनों मैं एक नै साईकिल 
खरीदने  की सोच रहा  था - कि
एक शाम  शहर में 
चांदपोल  हनुमान  जी के मंदिर सहित 
नो स्थानों  पर
जिन नो स्थानों  से 
मैं गुजरा हूँगा नो हज़ार बार 
नो नै नकोर  साइकिलों पर 
बस्तों में बंद नो बम 
फट पड़े सिलसिलेवार 

मांस के लोथड़ों और लाशों से 
पट गई शहर कि सड़कें  
मै दहशत  से भर उठा 

मैंने नै साईकिल 
खरीदने  का इरादा  छोड़  दिया 
हालाँकि  इसमें 
साईकिल का  कोई दोष  नहीं था 

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