कविता
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खिलौना खरीदने से पहले
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बार बार मेरे हाथ जाते हैं
कभी भालू की पीठ पर
कभी बन्दर को नाक पर
लौट आते हैं तेजी से
जैसे किसी ने गड़ा दिए हों नुकीले दांत
मैं कुछ झेंप कर पूछने लगता हूँ
एरोप्लेन या हैलीकॉप्टर के दाम
मेरे सामने खिलौनों की अदभुत दुनिया
सोती जागती गुड़िया है
मेरे ख्यालों में एक बच्चा है - जिसने
फरमाइश की थी एक गन की
अपने दोनों हाथ जेब में डाल कर
दुकानदार की और देख , खिलौनों के दाम सुन मुझे भी भी जरुरत महसूस होती है एक गन की
खिलौना खरीदने से पहले
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( काव्य - संग्रह " दीवारों के पार कितनी धूप "
वर्ष ' 1991 से एक कविता )