शनिवार, 8 अगस्त 2009

कविता --- दीवारों के पार कितनी धुप

दीवारों के पार कितनी धूप
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गेहूं, चावल, दाल
बीनते छानते
उसकी उम्र के कितने दिन
चुरा लिए समय ने
उसे अहसास भी नहीं हुआ

घर की चार दीवारी में
दिन रात चक्कर काटती
वह अल्हड लड़की भूल गई
दुनिया गोल है

उसे आता है
रोटी को गोलाई देना
तवे पर फिरकनी की तरह घुमाना

पाँच बरस में
उसने सीखा है
कम बोलना
ज्यादा सुनना
मुस्कुराना और सहना

उसकी शिक्षा
उपयोगी सिद्ध हो रही है
सब्जी और नमक के अनुपात में
चाय और चीनी के मिश्रण में

वह नंगी अँगुलियों से उठाती है
गर्म ढूध का भगोना
तलती है पकोडियां
मेहमानों के लिए
उसे खुशी होती है
बच्चों के लिए पराठा सेंकते हुए

कपडों को धूप देते हुए
उसने कभी नही सोचा
दीवारों के पार
कितनी धूप
बाकी है अभी
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4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह गोविंद माथुर जी वाह
    बेहद अच्छी कविता की है आपने
    अच्छा होगा अगर आप बैकग्राउंड कलर बदल लें
    आंखों में चुभता है

    धन्यवाद

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  2. सर आप यूँ ही अगले कई दशकों तक सक्रिय बने रहें.

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  3. कपडों को धूप देते हुए
    उसने कभी नही सोचा
    दीवारों के पार
    कितनी धूप
    बाकी है अभी.........bahut achchi panktiyan.

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