रविवार, 20 सितंबर 2009

कविता 
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खिलौना   खरीदने से पहले 
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बार बार मेरे हाथ   
जाते है  कभी भालू की पीठ पर 
कभी बन्दर की नाक  पर 
और लौट आते है तेजी से  
जैसे किसी ने गडा दिए हों  नुकीले   दांत 

मैं कुछ झेंप   कर 
पूछने लगता हूँ दाम 
एरोप्लेन  या हेलिकोप्टर के 


मेरे सामने 
खिलौनों  की अदभुत  दुनिया है
सोती जागती  गुडिया  है 
और ख्यालों में है 
एक बच्चा -जिसने 
फरमाइश  की थी  एक गन  की 


अपने  दोनों  हाथ  पाकिट  में 
डाल कर दुकानदार की और देख 
मुस्कराते   हुए  मुझे  भी 
जरूरत  महसूस होती है 
एक  गन की 
कोई भी खिलौना  खरीदने से पहले
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