मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

एक तारा

कविता 
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 ( एक )
एक तारा
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मैं जानता  हूँ 
मैं सूरज नहीं हूँ 
चाँद भी नहीं हूँ 

सूरज तो  मैं 
होना भी नहीं चाहता था 
चाँद  की तरह 
घटते  - बढ़ते  रहना   चाहता था 
अँधेरे में चमकते रहना चाहता था 
शीतलता में 
मुस्कराते रहना चाहता था 

लेकिन मैं चाँद 
नहीं हो सका 
एक तारा हो कर  रह गया 
 किसी की आँख का तारा नहीं 
एक टिमटिमाता  तारा 
अरबों - खरबों तारों के बीच 
एक तारा 
जिसकी कोई पहचान नहीं 
जिसकी कोई रोशनी नहीं 
एक रात टूट जाऊंगा 
टूट कर बिखर जाऊंगा 
आकाश में 
आस पास के तारे 
आह भर कर रह जायेगें 

पेड़ पर बैठे पंछी 
चाँद को देखते हुए कहेगें 
टूट गया एक और तारा 
जिसका कोई नाम नहीं था
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( दो )
आकस्मिक 
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 कुछ भी हो सकता है 
आकस्मिक 
अपेक्षा रखते है 
जिसके होने की 
वह नहीं होता 

योजना बना कर 
 जो करते है 
वह भी अक्सर नहीं होता 

कुछ घटनाएं होती हैं 
हम मान कर चलते हैं 
समय पर नहीं होती 
किन्तु आकस्मिक भी नहीं होती 

कुछ घटनाओं  का होना 
निश्चित नहीं होता 
वे होती हैं आकस्मिक 
जैसे प्रेम 

कुछ घटनाओं का
अपेक्षित   नहीं  होता 
वे भी होती हैं आकस्मिक 
जैसे विश्वासघात 
जैसे हृदयाघात 

निश्चित होता है 
जिसका होना 
 वह भी होती है 
आकस्मिक 
जैसे मृत्यु। 
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( "  नया ज्ञानोदय " भारतीय ज्ञानपीठ , नई दिल्ली )
(  माह  अप्रैल ' २०१६  के अंक में  प्रकाशित )