सोमवार, 31 मई 2010

kavita

कविता 
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युवा कवि 
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युवा कवि होने के लिए 
लबादे  की तरह विद्रोह  ओढ़े  रहना  चाहिए 
सुविधा भोगते हुए भी 
असंतुष्ट और नाराज़ दिखते रहना चाहिए 
हर समय होंठो पर टिकाये रखनी चाहिए किंग साइज़  सिगरेट 


सहमत नहीं होना चाहिए किसी भी मुद्दे पर 
शुरू कर देनी चाहिए बहस 
हर शाम शराब पीते हुए 
अपने से वरिष्ठ  कवियों को गाली देते रहना चाहिए 


युवा कवियों को अक्सर 
देर से पहुंचना चाहिए गोष्ठियों में    
पीछे की कुर्सियों पर बैठ कर
फब्तियां  कसते रहना चाहिए 
अपनी बारी आने पर 
अनिच्छा  दर्शाते हुए 
पढ़ डालनी चाहिए आठ दस कवितायेँ 


कविता लिखने से कुछ नहीं होता 
कविता लिखने से पुरस्कार भी नहीं मिलता 
युवा कवियों को कविता से इत्तर  भी कुछ करते रहना चाहिए 
मसलन  बताते रहना चाहिए
अपनी नई  प्रेमिकाओं के नाम 


नशे में खींच लेना चाहिए 
आलोचक के कमीज़  का कालर 
चर्चा में कविता नहीं कवियों को रहना चाहिए 


बहुत कठिन समय है ये 
साहित्य  के केंद्र  में कविता नहीं 
कविता के केंद्र कवि है इन दिनों 
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गुरुवार, 20 मई 2010

कविता
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मेरा  हाथ 
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  उठता है  मेरा हाथ 
अभिवादन के लिए 
अभिषेक के लिए 
शुभ कामना के लिए 

उठता है मेरा हाथ 
दुआ मांगने के लिए 
अन्याय  के विरूद्ध 
आवाज  उठाने  के लिए 
शोषण के विरूद्ध 
हक  मांगने के लिए 

लेकिन नहीं उठता मेरा हाथ 
पीठ में छुरा घोंपने  के लिए 
धर्मध्वजा  लहराने  के लिए 
रथ में जूते घोड़ों को 
चाबुक मारने के लिए 
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सोमवार, 10 मई 2010

कविता
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मेरी माँ का स्वप्न
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हर माँ  का एक स्वप्न  होता है 
मेरी  माँ का भी एक स्वप्न  था 

हर बेटा अपनी माँ की
आँख का तारा होता है 
कैसा भी हो
भविष्य  का सहारा होता है 

मैं भी होनहार बीरबान था 
मेरे भी चिकने  पात थे 

मेरी माँ का स्वप्न  था 
मैं  ओहदेदार  बनूँगा 
समाज में  प्रतिष्ठित 
इज्जतदार  बनूँगा 
एक बंगले  और कार का 
हकदार बनूँगा 

माँ का ये स्वप्न 
न जाने कब मेरा स्वप्न  बन गया 

मैं  बचपन से  ही 
एक अलग दुनिया में खो गया 
मुझे  न क्यों 
भाग्यशाली  होने का भ्रम  हो गया 

और जब माँ की साधना से 
ओहदा  पाने लायक हो गया 
ओहदा  ही न जाने  कहाँ    खो गया   

कुछ दिन  जूते घिस कर 
भ्रम से निकल कर 
किसी ओहदेदार का  अहलकार  हो गया 

मेरा माँ का  विश्वाश  टूट गया 
उसका  ईश्वर  रूठ गया 


एक दिन माँ ने 
आँखे बंद  करली 
माँ का स्वप्न भी 
बंद आँखों  में मर गया 


मैं खुश था 
माँ के मरने  से नहीं 
स्वप्न के मर जाने से 


फिर मुझे लेकर 
किसी ने स्वप्न नहीं देखा 
कौन देखता 
मैंने  भी नहीं देखा 

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शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

कविता 
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कला में  गणित 
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मैं गणित में  बहुत कमजोर था 
यदि मेरी गणित अच्छी  होती 
शायद मैं  इन्जीनीयर होता 

गणित  में अनुतीर्ण  होते रहने पर  
मैं कला  वर्ग में आगया 
विश्वविद्यालय की परीक्षाओं  में
उतीर्ण  होता चला गया 
मुझे  मास्टर आफ  आर्ट्स  की
उपाधि भी मिल गई 
पर गणित में कमजोर ही रहा 


बीज गणित एवं रेखा गणित से 
मैंने छुटकारा  पा लिया पर 
जीवन के गणित में फंस गया 


संबंधों  में गणित 
मित्रों में गणित 
साहित्य  में गणित 
कला में गणित 


सम्मान में गणित 
अपमान में गणित 
पुरस्कार में गणित 
तिरस्कार में गणित 


मेरा सोचना गलत था 
गणित अच्छी होने पर 
इन्जीनीयर  ही बना जा सकता है 
सच तो ये है कि 
कुछ भी  बनने के लिए 
गणित अच्छी होना  जरूरी  है.
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शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

कविता 
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कविता से कोई नहीं डरता 
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किसी काम के नहीं होते कवि 
बिजली का उड़ जाए फ्यूज  तो 
फ्यूज  बांधना नहीं आता 
नल टपकता हो तो टपकता रहे 

चाहे  कितने ही  कला    प्रेमी हों
एक तस्वीर तरीके  से
नहीं लगा सकते कमरे  में 

पेड़ पौधों  और फूलों के बारे में 
खूब बाते करते है 
छांट  नहीं सकते 
अच्छी तुरई  और टिंडे 
जब देखो उठा लाते  है 
गले हुए केले और     आम 

वे नमक पर लिखते है कविता
दाल में कम हों  नमक 

तो उन्हें महसूस नहीं होता 
वे रोटी पर लिखते है कविता 
रोटी  कमाना उन्हें नहीं आता 
वे प्रेम पर लिखते है कविता 
प्रेम जताना उन्हें नहीं आता 


कविता लिखते है 
अपने आसपास के माहौल पर 
प्रकाशित होते है सूदूर 
अपने घर में भी 
उन्हें कोई नहीं मानता 
अपने शहर  में 
उन्हें कोई नहीं जानता 


कवियों को तो 
होना चाहिए  संत-फकीर 
होना चाहिए निराला-कबीर 
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कविता 
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कुर्सी कवि 
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अपने से भाग कर 
अपनी छाया से टकरा कर 
डर जाते है कुर्सी कवि 
सुंदर लेख की तरह 
सुन्दर कवितायेँ लिखने वाले कवि 


विदेश से आयातित 
सुन्दर चश्मा  लगा होने के बावजूद 
आकाश साफ़  दिखाई नहीं देता है
आकाश में उड़ने  वाली सारी पतंगें 
दिखती है एकसी  


कला केन्द्रों में बंद 
कला की चिंता में  मूटियाते 
कला केन्द्रों से निकल कर 
दूर दर्शन और आकाशवाणी केन्द्रों तक 
जाते है कुर्सी कवि 
जंहाँ कुर्सियां 
करती है उनका  अभिवादन 


अपठनीय , निस्पंद और अमूर्त 
कविताओं का रोना रोने वाले संपादक 
छापते है उनकी कवितायेँ 


कुर्सी कवि डरते है पतंगबाजों से 
या फिर  अपनी छाया से
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शुक्रवार, 19 मार्च 2010

कविता 
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सोने की चिड़िया 
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दूध  के धुले हुए तो हम 
तब भी नहीं थे 
दूध  में पानी मिलाना तो 
तब से ही शुरू कर दिया था 
जब दूध की कमी नहीं थी 

उन्ही दिनों आटे में नमक 
कहावत को समाज  में  स्वीकृति  मिल गई थी 
देशी घी में डालडा  घुल  मिल चुका था  
मिर्च में लाल रंग और 
धनिये  में घोड़े  की लीद के 
बारे में हम सुन चुके थे 

लेकिन इस सब के बावजूद 
एक उम्मीद  बची थी  कि 
सब ठीक हो जायेगा 
ये देश फिर से 
सोने कि चिड़िया हो जायेगा 


तब तक मिलावट करने  वाला बनिया 
तस्करी करने वाला व्यापारी 
जिस्म का सौदा करने वाला दलाल 
भेदभाव  फ़ैलाने वाला धर्म गुरु 
हथियारों का सोदा करने वाला  तांत्रिक 
राजनेता  से उजाले में  नहीं मिलता था 
समाचार पत्रों  में 
चित्र साथ साथ नहीं छपते थे 
उमीद थी कि  कुछ बेईमान  लोग 
जल्दी ही बेनकाब  कर दिए  जायेगे  

युवा तुर्क संसद में दहाड़ रहे थे 
गरीबी हटाओ और समाजवाद  लाओ  के 
नारो की गूँज से पूंजीवाद देश में 
इस तरह  कांप रहा था 
जैसे एक  सर्वहारा ठण्ड की रातों में 
आज भी कांप रहा है 
 उम्मीद  रंग लायी और खूब लायी 
चंद शब्द , शब्द कोश से बाहर  कर दिए गए  
चंद लोग  पागल करार  कर दिए गए 
बहुराष्ट्रीय  कम्पनियों को  बुलाया गया 
देश में  खुलापन  लाया गया 
सब कुछ ठीक  हो गया 
देश फिर से सोने की  चिडिया हो गया 
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शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

कविता 
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अक्सर हम  भूल जाते है 
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अक्सर हम भूल जाते हैं चाबियाँ 
जो किसी खजाने की  नहीं होती 
अक्सर रह जाता है हमारा कलम 
किसी अनजान के पास 
जिससे  वह नहीं लिखेगा कविता 

अक्सर हम  भूल जाते हैं 
उन मित्रों के टेलीफ़ोन नंबर 
जिनसे हम रोज मिलते है 
डायरी  में मिलते है 
उन के टेलीफोन  नंबर 
जिन्हें हम कभी फ़ोन नहीं करते 


अक्सर हम भूल जाते हैं 
रिश्तेदारों के बदले हुए पते 
याद रहती है रिश्तेदारी 


अक्सर याद नहीं रहते 
पुरानी अभिनेत्रियों  के नाम 
याद  रहते है उनके चेहरे 


अक्सर हम भूल जाते हैं 
पत्नियों द्वारा बताये काम 
याद रहती है बच्चों की  फरमाइश 


हम किसी दिन नहीं भूलते 
सुबह  दफ्तर  जाना 
शाम को बुद्धुओं की तरह 
घर लौट आना 
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सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

कविता 
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बाथ रूम 
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उन्होने बनवाया एक आलीशान मकान 
लाखों में खरीदी थी जमीन 
करोड़ों में कमाया था  काला धन 
राजधानी से आया वास्तुकार 
दूर दराज  से आये पत्थर 
गलियारे  में लगा था सफ़ेद संगमरमर 


मकान में सबसे शानदार 
और देखने लायक था 
उनका बाथ रूम 
जगमगाता उजला 
चांदनी  से नहाया फर्श 
जिस पर ठिठक  जाएँ पैर 


कहते है काला धन 
खपाया जाता है मकान बनवाने में 
या विवाह समारोह  के शामियाने में 

वे हर बड़े आदमी की  तरह 
अक्सर रहते थे बाथरूम में 
एक दिन समाचार मिला 
एक दम चित गिरे थे 
फिर नहीं उठ  पाए बाथ रूम से 


बचपन में कहानियों में पढ़ा था 
अक्सर जादूगर की  जान  किसी 
पुराने किले  में बंद 
तोते में हुआ करती थी 
कहते है उनकी जान बाथ रूम में थी.

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

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कविता 
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नीली धारिओं वाला स्वेटर 
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कैसी    भी रही हो  ठण्ड 
ठिठुरा देने वाली या गुलाबी 
एक ही स्वेटर  था  मेरे पास 
नीली धारिओं वाला 


बहिन  के स्वेटर बुनने  से पहले
किसी की उतरी  हुई जाकेट 
पहन ता था मैं 
जाकेट में  गर्माहट  थी 
पर जाकेट पहन कर 
ख़ुशी नहीं मिलती थी मुझे 
एक उदासी  छा जाती थी 
मेरे चेहरे पर  

बहिन मेरे चेहरे  पर छाई 
उदासी पढ़  कर 
खुद भी उदास  हो जाया करती थी 
बहिन ने थोड़े थोड़े पैसे बचा कर 
ख़रीदे सफ़ेद नीले ऊन के गोले 
एक सहेली से मांग लाई  सलाई 

किसी पत्रिका  के बुनाई विशेषांक  से 
सीखी  बुनाई 
दो उल्टे  एक सीधा 
एक उल्टा दो सीधे  डाले फंदे 

कई  दिनों तक नापती रही 
मेरा गला और लम्बाई 
गिनती रही फंदे 
बदलती रही सलाई


ठिठुराती ठण्ड  आने से पहले 
एक दिन  बहिन ने
पहना दिया मुझे नया स्वेटर 
बहिन की ऊंगलियों  की ऊष्मा 
समां गई  थी स्वेटर में 

मेरे चेहरे पर आई  चमक 
देख कर खुश थी बहिन 
मेरा स्वेटर देख कर 
लड़कियां पूछती थी 
कलात्मक बुनाई के बारे में 


बहिन  के ससुराल जाने बाद भी 
कई वर्षों तक पहनता रहा मैं 
नीली धारिओं वाला  स्वेटर 

उस स्वेटर जैसी ऊष्मा 
फिर किसी स्वेटर में नहीं मिली 
उस स्वेटर की स्मृति  में 
आज भी ठण्ड नहीं लगती मुझे 
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शनिवार, 26 दिसंबर 2009

कविता 
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अच्छा कवि
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मैंने कहा  वे एक बहुत अच्छे  आदमी है 
बहुत मिलनसार जिंदादिल 
गर्व उनको छू भी नहीं गया है
अपनों से  छोटों  से भी खुलापन  रखते है 
समय पर सुख दुःख में भी काम आते है 

उसने कहा हाँ होंगे 
क्या अच्छा आदमी होने से 
कोई अच्छा कवि भी हो जाता है 
बहुत घटिया कवितायेँ लिखते है वे 
हम उन्हें कवि नहीं मानते 

मैंने कहा वे एक बहुत अच्छे कवि है 
अध्यन भी खूब है उनका 
कभी हिंदी कविता की बात ही नहीं करते 
सभी पत्रिकाएं छापती है उनकी कवितायेँ 
कई पुरस्कार भी मिल चुके है उन्हें 

उसने कहा 
पुरस्कार मिलने से  कोई बड़ा कवि नहीं हो जाता 
विदेशी साहित्य  की चोरी करते है 
अच्छा कवि होने के लिए 
अच्छा  आदमी भी होना चाहिए  
बहुत घटिया आदमी है वे 
हम उन्हें  कवि नहीं मानते 

मैंने कहा वे एक  बहुत प्रतिष्ठित कवि है 
मानवीय गुन भी कूट कूट कर भरे है उनमे 
अपनी माटी की महक है उनकी कविताओं में 
लखटकिया पुरस्कार भी मिल चुका है 
नामवर आलोचक भी प्रशंसा  करते है उनकी 


उसने कहा  
सब जोड़ तोड़ और सम्बन्धों के सहारे किया है 
बड़े शातिर और हिसाबी आदमी है वे 
पूरा एक गुट है उनका 
जो एक दूसरे की प्रशंसा  करता  रहता है 


हम उन्हें कवि नहीं मानते 
वे हमारे गुट में नहीं है 
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सोमवार, 14 दिसंबर 2009

   
कविता 
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वह आदमी कुछ नहीं बोलता
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वह आदमी कुछ नहीं बोलता 
रहता है एक दम चुप 
सुनता है  सब की 
वह पैदा हुआ है केवल सुनने  के लिए 


सारे आदर्श ढोने है उसे 
देश  की    अखंडता  का भार है उस पर 
नैतिकता ढूंढी  जाती है उसमे 
ईमानदार  होना है केवल उसे 


अशिक्षित  और निरीह 
बने रहना  है  उसे 
ताकि देश के कर्णधार 
राजनीतिज्ञ ,पूंजीपति और विद्वान 
दिखा सके उसे राह 
वह पैदा हुआ है केवल राह देखने के लिए


धर्म और जातिवाद से ऊपर 
उठ कर जीना है उसे 
सामाजिक कुरूतियों से लड़ना है 
गर्व करना है अपनी भाषा पर 
देश की अस्मिता और संस्कृति को
बचाना है केवल उसे 
क्योंकि वह एक महान देश का 
आम नागरिक है.
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सोमवार, 7 दिसंबर 2009

कविता 
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बचा हुआ  स्वाद 
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जीभ का भूला हुआ स्वाद 
जीभ पर नहीं है 
सुरक्षित है मेरी स्मृति  में

न रोटियों में 
न दाल में 
न अचार  में 
बचा है स्वाद 
मेरी स्मृतियों  में 


बचाए रखना चाहता  हूँ 
थोड़ी सी महक 
थोड़ी सी गंध 
थोड़ी सी भूख 
थोड़ी सी प्यास 
अपनी स्मृतियों में


बचाए रखना चाहता हूँ 
खाली पेट देखे स्वप्न 
खट्टे मीठे फालसों 
काली जामुन और 
लाल बेर का रंग 
मुंह में आया पानी 
और बचा हुआ स्वाद 
अपनी स्मृतियों   में.
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शनिवार, 21 नवंबर 2009

कविता 
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पिता 
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सर्दियों की ठिठुरती सुबह में 
मेरा पुराना कोट पहने 
सिकुड़े हुए कही दूर से 
दूध लेकर आते है पिता 


दरवाजे पर उकडू से बैठे 
बीडी पीते हुए 
मुझे आता देख 
हड़बड़ी में 
खड़े हो जाते है पिता 


सारा दिन निरीहता से 
चारों तरफ देखते 
चारपाई बैठे खांसते 
मुझे देख कर चौंक उठते है पिता


मैं कभी भी 
उनके पैर नहीं छूता 
कभी हाल नहीं पूछता 
जीता हूँ एक दूरी 
महसूसता हूँ 
उनका होना  
सोचता हूँ 
यह कब से हुआ पिता 
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गुरुवार, 12 नवंबर 2009

   कविता
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सत्य  का चेहरा 
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सत्य का एक चेहरा होता है 
रंगहीन  भी नहीं होता सत्य 


लेकिन झूठ कि तरह 
हर कहीं नहीं होता  सत्य 
न ही झूठ में घुल पाता  है 
अगर होता है कहीं तो 
अलग  से दिव्या आलोक  लिए 
दमकता  रहता है सत्य 


इधर  वर्षों से कहीं    गुम  हो गया  है सत्य

हम में से कई लोगो ने 
अपने जीवन में कभी देखा ही नहीं 
कैसा होता है सत्य 


कुछ लोग निरंतर 
सत्य की खोज  में 
भटक  रहे है  आजभी 


जब की कुछ  लोग 
 दावा कर रहे है कि 
उन्होने  खोज लिया है  है सत्य 


जिसे वे  सत्य समझ रहे है 
हज़ार बार बोला गया झूठ है 
रगड़ रगड़ कर पैदा कि गई चमक है 


वे आनंदित  प्रमुदित है 
अपनी खोज पर 
 उन्होने  पा लिया है सत्य 

हे ईश्वर 
उन्हें  बता कि सत्य क्या है 
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बुधवार, 4 नवंबर 2009

कविता 
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कविता से कोई नहीं डरता 
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किसी काम के  नहीं होते कवि 
बिजली  का उड़  जाये फ्यूज तो 
फ्यूज  बांधना  नहीं  आता 
नल टपकता  हो तो 
टपकता रहे  रात भर 

चाहे  कितने  ही कला प्रेमी  हों 
एक तस्वीर तरीके  से नहीं 
लगा सकते  कमरे में 

कुछ नहीं समझते कवि 
पेड़ पौधों और फूलों के 
विषय  में खूब  बात करते है 
छाँट  नहीं सकते 
अच्छी तुरई और  टिंडे 
जब देखो उठा लाते  है 
गले हुए  केले और आम 

वे नमक  पर लिखते है कविता 
दाल में कम हो नमक तो 
उन्हें  महसूस नहीं होता 

रोटी पर लिखते है कविता 
रोटी कमाना नहीं आता 
वे प्रेम पर लिखते है कविता 
प्रेम जताना  नहीं आता 

कवियों का हो जाये ट्रांसफर 
तो घूमते रहते है सचिवालय  में 
जब तब सुरक्षा  कर्मचारी 
बाहर कर देता है 
प्रशासनिक अधिकारी 
मिलने का समय नहीं देते 

कौन  पूछता है कवियों को 
अच्छे पद पर हो तो बात और है 
कविता से कोई नहीं डरता 

कविता लिखते है 
अपने आसपास  के परिवेश पर 
प्रकाशित होते है सुदूर पत्रिकाओं  में 
अपने  शहर में भी 
उन्हें  कोई नहीं जानता
अपने घर में भी उन्हें 
कोई नहीं मानता 


कवियों  को तो होना चाहिए 
संत-फ़कीर 
कवियों  को होना चाहिए 
निराला-कबीर 
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सोमवार, 26 अक्टूबर 2009

कविता
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दूसरे  शहर  में 
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दूसरे  शहर  में  घर नहीं होता 
समाचार  पत्र  में नहीं मिलते 
अपने शहर के समाचार 


दूसरे शहर में 
सड़क   पर  चलते  हुए 
ये अहसास  साथ चलता 
यहाँ  इस  शहर में 
मुझे कोई नहीं पहचानता 


घर से  दूर

अधिक याद  आता  है घर 
बार बार याद आते है बच्चे 
लौट  आयें होगें स्कूल  से 
खेल रहे होंगें  शायद 
पूछ  रहे होंगे  मम्मी  से 
कल  सुबह तो आ ही जायेगें पापा 


दूसरे शहर में ठण्ड 
अधिक लगती  है 
थक जाता हूँ  बहुत जल्दी 
दूसरे शहर में 
मुझे नींद नहीं आती 


रहता है पेट ख़राब 
खाना कम खाता हूँ 
सिगरेट  ज्यादा  पीता हूँ 

दूसरे  शहर की इमारते 
लगती है अजायबघर 
लड़कियां  लगती है खूबसूरत 
दूसरा शहर लगता है 
दूसरे देश में 


दूसरे शहर से 
अपना शहर लगता है 
बहुत दूर   


दूसरे शहर से  
लौट कर अच्छा  लगता है 
नक्शे  में ढूँढना 
दूसरा  शहर 
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शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

कविता 
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तस्वीरों  से झांकते  पुराने मित्र 
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श्वेत श्याम तस्वीरों में 
अभी मौजूद है पुराने मित्र 
गले  में        बांहे डाले या 
कंधे पर कुहनी टिकाये

तस्वीरें  देख कर नहीं लगता 
बरसों से नहीं मिले होगें 
ये मासूम  से दिखने वाले 
दुबले पतले छोकरे 

तस्वीरों से बाहर 
मिलना नहीं होता पुराने मित्रों से 
कुछ एक को तो देखे हुए  भी 
पन्द्रह बीस साल गुजर गए 
एक शहर में रहते हुए भी 


कभी कभार  कहीं से 
खबर मिलती किसी की 
आकाश की मुत्यु   को दो साल होगये 
विमल बहुत शराब पीने लगा है 
श्याम बाबू दुबई  में है इन दिनों 


अचकचा  गया एक दिन 
अजमेरी गेट  पर अंडे खरीदते  हुए 
एक मोटे आदमी को देख कर 
प्रमोद हंस रहा था मुझे पहचान कर 
महानगर  होते        शहर में 

ऐसा  कभी ही होता है 
कोई आपको पहचान रहा हो 


ये सोच कर उदास हो जाता है मन 
जिन मित्रों के साथ जमती थी महफ़िल 
मिलते  थे हर रोज़ 
घंटों खड़े रहते थे चौराहे  पर 
वे बचपन के मित्र जीवन से निकल कर 
तस्वीरों में  रह गए है

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शनिवार, 10 अक्टूबर 2009

कविता 
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नींद  में  स्त्री 
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कई  हज़ार वर्षों  से 
नींद  में जाग  रही है  वह  स्त्री 
नींद में  भर रही है  पानी 
नींद   में  बना  रही व्यंजन 
नींद में बच्चों को 
खिला रही है  चावल 


कई हज़ार वर्षों से 
नींद  में  कर रही  है प्रेम 


पूरे परिवार के कपडे धोते हुए 
जूठे  बर्तन साफ़ करते  हुए 
थकती नहीं है वह स्त्री 
हजारों मील नींद में  चलते हुए 


जब पूरा परिवार 
सो जाता है संतुष्ट  हो कर 
तब अँधेरे  में 
अकेली बिल्कुल अकेली 
नींद में जागती  रहती है वह स्त्री 
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मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009

कविता 
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काम  से लौटती  स्त्रियाँ       
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जिस तरह हवाओं  में 
लौटती है  खुशबू       
पेडों पर लौटती  है चिडियां 
शाम  को घरों को 
लौटती है काम पर गई स्त्रियाँ 


सारा दिन बदन पर 
निगाहों  की चुभन  महसूस करती 
फूहड़ और अश्लील चुटकुलों से ऊबी 
शाम को  घरों को 
लौटती है काम पर गई  स्त्रियाँ 


उदास  बच्चों के लिया टाफियाँ 
उदासीन  पतियों  के लिए 
सिगरेट  के पैकेट  खरीदती 
शाम को घरों को 
लौटती है काम पर गई स्त्रियाँ 


काम पर गई  स्त्रियों के साथ 
लौटता है  घरेलूपन 
चूल्हों  में लौटती है आग 
दीयों में लौटती है रोशनी
बच्चों  लौटती है हंसी 
पुरुषों में लौटता है  पौरुष 


आकाश  अपनी जगह 
दिखाई देता है 
पृथ्वी घूमती है 
अपनी धुरी पर 
जब शाम को घरों को 
लौटती  है काम पर गई स्त्रियाँ 
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