शुक्रवार, 19 मार्च 2010

कविता 
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सोने की चिड़िया 
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दूध  के धुले हुए तो हम 
तब भी नहीं थे 
दूध  में पानी मिलाना तो 
तब से ही शुरू कर दिया था 
जब दूध की कमी नहीं थी 

उन्ही दिनों आटे में नमक 
कहावत को समाज  में  स्वीकृति  मिल गई थी 
देशी घी में डालडा  घुल  मिल चुका था  
मिर्च में लाल रंग और 
धनिये  में घोड़े  की लीद के 
बारे में हम सुन चुके थे 

लेकिन इस सब के बावजूद 
एक उम्मीद  बची थी  कि 
सब ठीक हो जायेगा 
ये देश फिर से 
सोने कि चिड़िया हो जायेगा 


तब तक मिलावट करने  वाला बनिया 
तस्करी करने वाला व्यापारी 
जिस्म का सौदा करने वाला दलाल 
भेदभाव  फ़ैलाने वाला धर्म गुरु 
हथियारों का सोदा करने वाला  तांत्रिक 
राजनेता  से उजाले में  नहीं मिलता था 
समाचार पत्रों  में 
चित्र साथ साथ नहीं छपते थे 
उमीद थी कि  कुछ बेईमान  लोग 
जल्दी ही बेनकाब  कर दिए  जायेगे  

युवा तुर्क संसद में दहाड़ रहे थे 
गरीबी हटाओ और समाजवाद  लाओ  के 
नारो की गूँज से पूंजीवाद देश में 
इस तरह  कांप रहा था 
जैसे एक  सर्वहारा ठण्ड की रातों में 
आज भी कांप रहा है 
 उम्मीद  रंग लायी और खूब लायी 
चंद शब्द , शब्द कोश से बाहर  कर दिए गए  
चंद लोग  पागल करार  कर दिए गए 
बहुराष्ट्रीय  कम्पनियों को  बुलाया गया 
देश में  खुलापन  लाया गया 
सब कुछ ठीक  हो गया 
देश फिर से सोने की  चिडिया हो गया 
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