सोमवार, 10 मई 2010

कविता
---------
मेरी माँ का स्वप्न
------------------
हर माँ  का एक स्वप्न  होता है 
मेरी  माँ का भी एक स्वप्न  था 

हर बेटा अपनी माँ की
आँख का तारा होता है 
कैसा भी हो
भविष्य  का सहारा होता है 

मैं भी होनहार बीरबान था 
मेरे भी चिकने  पात थे 

मेरी माँ का स्वप्न  था 
मैं  ओहदेदार  बनूँगा 
समाज में  प्रतिष्ठित 
इज्जतदार  बनूँगा 
एक बंगले  और कार का 
हकदार बनूँगा 

माँ का ये स्वप्न 
न जाने कब मेरा स्वप्न  बन गया 

मैं  बचपन से  ही 
एक अलग दुनिया में खो गया 
मुझे  न क्यों 
भाग्यशाली  होने का भ्रम  हो गया 

और जब माँ की साधना से 
ओहदा  पाने लायक हो गया 
ओहदा  ही न जाने  कहाँ    खो गया   

कुछ दिन  जूते घिस कर 
भ्रम से निकल कर 
किसी ओहदेदार का  अहलकार  हो गया 

मेरा माँ का  विश्वाश  टूट गया 
उसका  ईश्वर  रूठ गया 


एक दिन माँ ने 
आँखे बंद  करली 
माँ का स्वप्न भी 
बंद आँखों  में मर गया 


मैं खुश था 
माँ के मरने  से नहीं 
स्वप्न के मर जाने से 


फिर मुझे लेकर 
किसी ने स्वप्न नहीं देखा 
कौन देखता 
मैंने  भी नहीं देखा 

------------------------

3 टिप्‍पणियां:

  1. अंतिम चार पंक्तियाँ मार्मिक हैं

    जवाब देंहटाएं
  2. Bahut hi achchi kavita hai. Umeed hai aane wale dino mai aapki aur kavitao ka aanand ke paungi.
    Mere blog par bhi ek najar daliye, improvements bataiye.

    जवाब देंहटाएं
  3. AAPKI KAVITA MERI MAA KA SWAPN, KAFI SUNDAR HAI,HAR BAAT HAZARO SE MILTI JULTI HAI,AUR MAI SAMJHTA HOON BAAT WAHI KAHI JAYE HO SAB KE KARIB HO.

    जवाब देंहटाएं