सोमवार, 22 अगस्त 2016

बातें

कविता :  बातें 
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कभी  हमारे  पास 
इतनी  बातें    थीं  कि -
ख़त्म   ही  नहीं  होती  
प्रहरों   बातें  करते  हुए  
चौराहे  पर   खड़े  रहते 
अपने  अपने  घर  पहुँचने के 
बाद    याद    आता  कि  -
वो  बात  तो  कही ही  नहीं 
जो  बात  करने  घर  से  निकले  थे 
अब  मिलते  हैं  तो  करने  के  लिए 
कोई  बात  नहीं  होती  
करने  के  लिए  वो  बात  करते  हैं 
जो  बात  ही  नहीं  होती 
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शनिवार, 6 अगस्त 2016

उम्मीद

कविता 
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उम्मीद
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पहले  मुझे  उसकी  कभी 
प्रतीक्षा  नहीं  करनी  पड़ी 
क्योकि  वह   वहां 
पहले  से मौजूद  रहता  था 
जहाँ   मुझे  
उसकी   अपेक्षा   होती 

मुझे  अब भी उसकी 
प्रतीक्षा  नहीं  करनी  पड़ती 
क्योकि  वह  वहां  नहीं  आएगा 
जहाँ   मुझे  उसकी  अपेक्षा  तो  है 
पर  उम्मीद  नहीं   है 
        ---------

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

अपने शहर में

कविता 
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अपने शहर में 
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सदी के मध्य में 
पृथ्वी पर  आया 
पचास वर्ष लग गए 
परिवेश को समझने में 

भूगोल अभी समझ 
नहीं आया 
नदियां समुद्र पहाड़ 
रेगिस्तान भी देखा 
खो गया घने जंगलों में 

चकित हुआ सूर्य और 
चन्द्रमा देख कर 
वर्षों निहारता रहा आकाश 

पहचान नहीं पाया 
अपने ही शहर के रास्ते 

रोज़ पूछता हूँ घर का रास्ता 
पूछ कर भटक जाता हूँ 
अपने ही शहर में 
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शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

लेकिन मैं नहीं होता

कविता 
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लेकिन   मैं   नहीं  होता 
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मैं   नहीं  लिखता   कविता  
तो  शायद   गायक   होता 
गाता   दादरा   ठुमरी   या   ग़ज़ल 

इतना    ही   असफल   होता 
जितना   कि   हूँ   कविता  में 

हो   सकता    है 
एक   असफल   चित्रकार   होता 

लेकिन   मैं   नहीं   होता 
एक   राजनीतिज्ञ 
प्रशासक   या   न्यायाधीश 

यद्पि    वहां    भी 
उतना    ही    असफल   होता 
जितना   कि     हूँ   कविता  में 

मुझे    असफल   भी   
कविता   में   ही    होना   था 

        -------------

रविवार, 10 जुलाई 2016

जयपुर छोड़ कर

 कविता 
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जयपुर  छोड़  कर 
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जब  नहीं   बचा 
इलाहाबाद   में  इलाहाबाद  
लखनऊ     में   लखनऊ 
भोपाल       में   भोपाल 
पटना         में    पटना 
दिल्ली        में    दिल्ली 

तो    क्यों    जाऊं   मैं 
जयपुर   छोड़    कर  
किसी   और   शहर  में 

क्या    सिर्फ   यही   कहने 
अब    जयपुर   में   भी 
नहीं      बचा     जयपुर 
(  मेरे   काव्य  -  संग्रह   "  बची   हुई   हंसी  "  में   संकलित )

शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

सफल व्यक्ति

कविता 
सफल   व्यक्ति  वही  है 
जो  सब   कुछ  देखता  है  
आँखें   मूँद  कर 
और   तेजी  से  गुजर  जाता  है 
सब  कुछ  रौंदते   हुए  
जैसे   की  बुलडोजर 
गुजर   जाता   है  झोंपड़ियों   पर  से 
शायद   ये   जरूरत   भी   है 
एक   विकासशील    देश   की 

(   मेरी   एक    कविता   का   अंश  )

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

यात्रा

कविता
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 मैं न भी जानता तो क्या होता
जानता  भी  हूँ  तो  क्या  हुआ 
मुझे  इस  यात्रा  में शामिल  होना था 
और  मैं  हो  गया 
ये  सब  ऐसे  ही हुआ 
जैसे  मेरा  जन्म  हो गया 
ये  बात  और  है  कि 
मैं  किसी  से  साथ हीं  चल  सका 
इसलिए  नहीं  की  सभी  लोग 
बेईमान  या  भ्र्ष्ट  है या कि 
लोगों  ने  ही  मुझे  छोड़  दिया 
कारण  चाहे  कुछ भी  रहा हो 
इस  लम्बी  यात्रा  में मुझे 
अकेला  ही  होना  था 
कुछ बहुत  दूर  तक साथ चल कर 
मुड़  गए  सुख - सुविधा  की  गली में 
मैं  पांव  के  कांटे  निकाल  कर  
अकेला  ही  चलता  रहा जा  रहा हूँ
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मंगलवार, 28 जून 2016

समझ

कविता 
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समझ 
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जब  तक   वे  एक - दूसरे  को 
नहीं समझते   थे 
तब    तक      वे 
समझ   ने   की   कोशिश  में 
एक - दूसरे  के  
नजदीक   आते   चले   गए 

जब  वे  एक -  दूसरे  समझ  गए 
तब  समझ  जाने  के   कारण 
एक  -  दूसरे   से 
दूर   होते   चले   गए 

दूर   ही  नहीं   होते   चले   गए 
एक - दूसरे   को 
समझ   लेने   की 
धमकी   भी    देते     चले   गए 
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शनिवार, 25 जून 2016

जोखिम

कविता 
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जोखिम
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थोड़े से साहस  और 
हिम्मत  की  जरूरत  होती है 
कोई   जोखिम  लेने के लिए 

झूठ  बोलने 
चोरी  करने
रिश्वत  लेने 
धोखा  देने  के लिए 
साहस  की  जरूरत  होती है 

जिन  लोगों  ने 
दिखाया  साहस 
वे सफल  हुए 
जो थोड़े  बहुत  पकड़े  गए 
छूट  गए  कानून  को अंगूठा  दिखाते  हुए 

उन  दिनों   जब शहर में 
कई  हाउसिंग  सोसाइटियां 
उग  आई  थीं  कुकुरमुत्ते  की तरह 
लोग  सस्ते   में   खरीद  रहे  थे  ज़मीन 
जो   मकान  बनाने  के  लिए  स्वीकृत  नहीं थी 
खूब  कमाया  हाउसिंग  सोसाइटियों   ने 

साहसी   लोगों  ने 
बना  लिए  मकान  
बसती   गई   अनाधिकृत  कॉलोनियां 
अनियमित  एवं  अनियोजित  
राजनीतिज्ञों  ने  किया  समर्थन 
सरकार  ने कर  दिया  नियमन 
वोट  लेने  के  लिए 

वे   सभी  जोखिम  
लेने  वाले  साहसी  व्यक्ति  
जिन्होंने  चंद   हजार  में 
खरीदी   थी   जमीन 
लाखों  की  संपत्ति  के  मालिक  हो  गए 

मुझ  जैसे  डरपोक 
जोखिम  न  लेने  वाले 
किसी  क्षेत्र  में भी 
सफल  नहीं   हो  सकते 
 न  ही   सम्पन्न 
       ----------
(  "  उदभावना  "  मार्च - जून '    2016 में  प्रकाशित  )

मंगलवार, 14 जून 2016

हम ख्याल

कविता
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हम  खयाल
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मैं जो सोच रहा होता
वही वह कह रहा होता
कभी कभी तो एक ही बात
एक साथ कह पड़ते हम
एक से थे हमारे खयालात
तब हमारी कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी

जहां मुझे जाना होता
वहीं वह जा रहा होता
अलग अलग राह होने पर भी
एक ही स्थान पर
एक साथ पहुँच जाते हम
तब हमारी कोई पहचान नहीं थी

जब पहचान का संकट हुआ
एक राह होने पर भी
एक ही स्थान पर
अलग अलग पहुँते हुये
एक ही विषय पर 
विरोधी स्वर में बोलते हैं हम

अहंकार ने इतनी 
दूरियां बढ़ा दी
जो कभी हमराज थे
एक दूसरे का  
राज खोलते हैं हम
       -----------
( " उद् भावना  " मार्च - जून' 2016 में  प्रकाशित )


मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

एक तारा

कविता 
-----------
 ( एक )
एक तारा
-----------
मैं जानता  हूँ 
मैं सूरज नहीं हूँ 
चाँद भी नहीं हूँ 

सूरज तो  मैं 
होना भी नहीं चाहता था 
चाँद  की तरह 
घटते  - बढ़ते  रहना   चाहता था 
अँधेरे में चमकते रहना चाहता था 
शीतलता में 
मुस्कराते रहना चाहता था 

लेकिन मैं चाँद 
नहीं हो सका 
एक तारा हो कर  रह गया 
 किसी की आँख का तारा नहीं 
एक टिमटिमाता  तारा 
अरबों - खरबों तारों के बीच 
एक तारा 
जिसकी कोई पहचान नहीं 
जिसकी कोई रोशनी नहीं 
एक रात टूट जाऊंगा 
टूट कर बिखर जाऊंगा 
आकाश में 
आस पास के तारे 
आह भर कर रह जायेगें 

पेड़ पर बैठे पंछी 
चाँद को देखते हुए कहेगें 
टूट गया एक और तारा 
जिसका कोई नाम नहीं था
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( दो )
आकस्मिक 
------------
 कुछ भी हो सकता है 
आकस्मिक 
अपेक्षा रखते है 
जिसके होने की 
वह नहीं होता 

योजना बना कर 
 जो करते है 
वह भी अक्सर नहीं होता 

कुछ घटनाएं होती हैं 
हम मान कर चलते हैं 
समय पर नहीं होती 
किन्तु आकस्मिक भी नहीं होती 

कुछ घटनाओं  का होना 
निश्चित नहीं होता 
वे होती हैं आकस्मिक 
जैसे प्रेम 

कुछ घटनाओं का
अपेक्षित   नहीं  होता 
वे भी होती हैं आकस्मिक 
जैसे विश्वासघात 
जैसे हृदयाघात 

निश्चित होता है 
जिसका होना 
 वह भी होती है 
आकस्मिक 
जैसे मृत्यु। 
----------------
( "  नया ज्ञानोदय " भारतीय ज्ञानपीठ , नई दिल्ली )
(  माह  अप्रैल ' २०१६  के अंक में  प्रकाशित )

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

बिखरा हुआ जीवन

कविता 
-------------
बिखरा हुआ जीवन
---------------------
एक दिन मुझे 
ख्याल आया 
अब सिमेट लेना चाहिए 

इधर -उधर देखा 
कुछ  भी नहीं था 
सिमेट लेने के लिए 
कुछ पत्र - पत्रिकाओं 
और पुस्तकों के अतिरिक्त 
जो बिखरी हुई थीं मेरे बाहर 

मैं तो सिमटा हुआ ही रहा 
कभी फैलाया नहीं स्वयं को 
अपने से बाहर 

सिमटते -सिमटते 
इतना सिकुड़ गया कि -
सिलवटें पड़ गईं 

जीवन में कभी 
दौड़ नहीं लगाई 
धीमें धीमें ही चलता  रहा 

सिमटा - सिकुड़ा 
कछुए  से सा जीवन जिया मैंने 

फिर न जाने क्यों 
मुझे ख्याल आया 
अब सिमेट लेना चाहिए 

एक बार और 
इधर- उधर देखा 
देखा अपने अंदर 
सिमटते - सिमटते भी 
कितना बिखर गया था 

इतना बिखरा था जीवन 
सिमेटा नहीं जा सकता था. 
       -------------
( राजस्थान पत्रिका, जयपुर। रविवार' २७दिस्म्बर' २०१५ में पकाशित )


पुराना साज़

तीन कवितायेँ                     
--------------                [ एक ]
पुराना  साज़  
------------------
जब कभी उदास होता 
लेकर  बैठ जाता  पुराना साज़ 
जिसे छेडने  पर निकलती मधुर धुनें 

दर्द भरे गीतों में ही नहीं 
उल्लास और प्रेम गीतों  में भी 
कितनी  ख़ामोशी थी 
दुःख हों या खुशियां 
छलक पड़ते थे आंसू
अंदर का कोलाहल 
साज़ ही महसूस करता  था 

हैं  सबसे मधुर वो गीत 
जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं 

एक दिन टूट गया वो साज़ 
जैसे टूट जाता है कोई सम्बन्ध 
एक पचास वर्ष पुराने साज़ के 
टूट जाने का अंदेशा तो रहता है 
एक पचास वर्ष पुराने सम्बन्ध का 
अनायास तो नहीं होता टूट जाना 
अंदेशा न रहता हो तो  भी 

मेरे टूटे हुए  दिल से 
कोई तो आज ये पूछे

अब भी कभी कभी 
टूटे हुए साज़ को ले कर बैठ जाता हूँ 
छेड़ने पर जिसमें से निकलती है 
टूटी भर्राई  सी आवाज 

मुझको  इस रात की तन्हाई में 
आवाज न दो

नए साज़ में कितनी ही पुरानी धुनें 
निकाल ने की कोशिश करो
वो सुर नहीं मिलता 
जैसे नए सम्बन्धों में 
कितनी ही गर्माहट हो 
 वो ऊष्मा नहीं मिलती 

सुर न सधे क्या गाउँ  मैं 
सुर के बिना जीवन सूना 

ज़माना बदलता है तो 
साज़ भी बदल जाते हैं 
सरोकार बदल जाते हैं तो 
सम्बन्ध भी बदल जाते हैं 

यूँ ही दुनिया बदलती है 
इसी का नाम दुनिया है 
          ---------               [ दो ]

बातें
------
कभी हमारे  पास 
इतनी बातें थी कि -
ख़त्म ही नहीं होती थीं 

प्रहरों बातें करते हुए 
चौराहे पर खड़े रहते 

अपने - अपने घर
पहुँचने के बाद 
याद आता कि -
वो बात तो कही ही नहीं 
जो बात करने घर से निकले थे 

अब मिलते हैं तो 
करने के लिए 
कोई बात नहीं होती 

करने के लिए 
वो बात करते हैं 
जो बात ही नहीं होती 
        -------                  [ तीन ] 
उम्मीद 
---------
पहले मुझे कभी 
उसकी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी 
क्योंकि वह वहां 
पहले से ही मौजूद रहता था 
जहाँ मुझे 
उसकी अपेक्षा होती 

मुझे अब भी 
उसकी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती 
क्योंकि वह 
वहां नहीं आएगा 
जहाँ मुझे 
उसकी अपेक्षा तो है 
पर उम्मीद नहीं
  ----------
[" वागर्थ " अंक २४५  दिसम्बर' २०१५ में प्रकाशित  ]
   

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

दोस्ती और प्रेम

तीन  कवितायेँ
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                                 ( एक )
दोस्ती और प्रेम 
-----------------
बहुत बरसों बाद 
समझ में आया 
दोस्ती एक यथार्थ है 
प्रेम एक भावुकता 

मैंने दोस्तों के लिए 
कुछ नहीं किया 
मैं दोस्तों से प्रेम करता रहा 
दोस्त मुझ पर अहसान करते रहे 

दोस्त तुम्हारे लिए कुछ करे 
दोस्त के लिए भी कुछ  है  करना पड़ता है 
दोस्ती एक तरफ़ा नहीं होती 
प्रेम एक तरफ़ा हो सकता है 

पचास बरस बाद भी 
पूछा जा  सकता है 
तुमने दोस्तों लिए क्या किया 
यदि कुछ किया है तो 
याद भी रखना पड़ता है 
सिर्फ करना ही पर्याप्त  नहीं 
समय  आने पर  गिनाना   भी  पड़ता है 

दोस्ती एक व्यावहारिकता  है 
मैं दोस्ती को भी 
प्रेम समझता रहा  
       -----------------
                                ( दो )
कवि और समाज 
-------------------
कुछ भी नहीं बदलता 
एक कवि के चले जाने से 

कवि जो करता था 
समाज को बदलने की बात 
बदल नहीं  पाया था स्वयं को भी 


कवि जानता  था 
उसकी कविता 
नहीं बदल सकती दुनिया को 

कवि के चले जाने से 
खाली हो जाती है एक कुर्सी 
सूनी हो जाती है एक मेज 
उदास हो जाती है कुछ किताबें 

कवि के चले जाने से 
भर आते है जिनकी आँखों में आंसू 
बिछुड़  जाने का  जिनको होता है दुःख 
वे कवि के  आत्मीयजन होते है 
जिनके लिए वह कवि नहीं होता  

कवि के चले जाने से 
समाचार नहीं बनता 
चुपचाप  चला जाता है कवि 
जैसे कोई गया ही नहीं हो 
    -----------------
{ प्रकाशित  " वागर्थ " अंक २३३ दिसम्बर ' २०१४}

असामयिक

कविता      
----------
असामयिक 
------------
कुछ भी नहीं होता 
असामयिक 

जिसे हम कहते है 
असामयिक 
वह भी समय पर ही होता है 

हम धारणा बना लेते है 
इस समय यह होना चाहिए 
आयु  को समय से
सम्बध्द  कर लेते है हम 

हर व्यक्ति के सम्बन्ध में 
अलग अलग है समय 
किसी के लिए सामयिक 
किसी के लिए असामयिक 

निश्चित है समय 
कुछ भी होने का 
जो भी होता है 
सामयिक    ही  

 कुछ भी नहीं होता 
असामयिक 
हमारा सोच होता है 
असामयिक 
---------------------

कविता 
----------
सुख और दुःख 
--------------
किसी किसी के हिस्से में आता है सुख 
सबके हिस्से में आता है दुःख 

जो होता है परमसुखी 
उसे भी दुःख का 
अहसास होता है कभी 

जो होते है परमदुःखी 
वे कभी सुख को 
महसूस नहीं कर पाते 
कल्पना करते  है 
शायद  होता है 
या वैसा होता है सुख 

सुखी लोग अपना सुख 
नहीं बांटते कभी 
दुखी लोग बांटते रहते है 
अपना दुःख 
बांटने से  भी  कम नहीं होता        

दुःख  व्यापक  और 
 वर्गहीन  है 
दूसरों  के दुःख से 
हम दुखी हो सकते है 
दूसरों केसुख से '
हम सुखी नहीं होते  
---------------------
[ रविवारीय ' जनसत्ता ' दिनांक १२  अक्टूम्बर ' २०१४ में  प्रकाशित  ]

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

आकस्मिक

कविता 
---------
आकस्मिक
--------------
कुछ भी  हो सकता है 
आकस्मिक 

अपेक्षा  रखते  है 
जिसके के  होने  की 
वह  नहीं होता

योजना  बना कर 
जो  करते  है 
वह भी अक्सर  नहीं होता 

कुछ चीजें  होती है 
जो हम मान कर  चलते  है 
समय  पर नहीं होती 
किन्तु-
आकस्मिक  भी नहीं होती 

कुछ घटनाओं का होना 
निश्चित नहीं होता 
वे होती है आकस्मिक 
जैसे प्रेम 

कुछ  चीजों  का होना 
अपेक्षित नहीं होता 
वे होती है आकस्मिक 
जैसे विश्वासघात 
जैसे  हृदयाघात 

निश्चित होता है 
जिसका  होना 
वह भी होती है आकस्मिक 
जैसे मृत्यु 
 ----------------

अच्छे दिन

कविता  
अच्छे   दिन  
मेरे  वो   बुरे  दिन 
जो  गुजरे  दोस्तों  के साथ 
अच्छे दिन लगते है 

किसी भी समय 
कोई भी दोस्त 
आ  टपकता  घर 
अनचाहे ही  मिल जाता राह में 
दिख  जाता  चौराहे  पर   खड़ा  हुआ 

कई  बार  बातों बातों में 
कट  जाता  पूरा दिन 
घर  से  भूखे  पेट  
निकले  हों  या भर पेट 
इतनी  भूख  हमेशा  रहती 
किसी  दोस्त घर बैठे  हों 
दोस्त  के साथ  खा  लिया   करते 

सड़क पर  रहे हों  तो 
किसी प्याऊ  पर
ठंडा  पानी  पी  कर
ठहाके  लगा लिया  करते 
गर किसी  की भी  
जेब  में  होती एक  चवन्नी 
किसी  थड़ी पर  चाय   पीते  हुए 
घंटों  बिता  लिया  करते 

विश्वास  से भरे  भरे  
जेब से  रीते रीते  
प्रतीक्षा  करते  अच्छे  दिनों की 
गुनगुनाते  रात के तीसरे  प्रहर 
शहर  की सुनसान  सड़कों  पर 
रफ़ी  तलत  और  मुकेश  के गीत 

कितने  अच्छे थे वो दिन 
जब नहीं थी  ईर्ष्या 
नहीं था  अहंकार 
न  ही कोई अपेक्षा  थी  किसी से 

कितने  लम्बे  लगते  थे 
उमीद  से भरे  वो दिन 

कितने मुश्किल , लेकिन 
कितने  अच्छे  लगते  है 
आवारगी  के वो दिन 
    ------------------
[  प्रकाशित  " राजस्थान  पत्रिका "  रविवार  दिनांक  २४  अगस्त ' २०१४ ]



शनिवार, 12 जुलाई 2014

कलम


कलम: तीन कवितायेँ 
----------------------
       [ एक ] 
किसी पंछी के पर को 
कभी कलम  नहीं बनाया 

सरकंडे की कलम को 
काली स्याही की दवात में 
डुबो कर, तख्ती पर 
लिखना सीखा मैंने 

कलम  कमल  कमला 
मदन   रतन    अमला 
पनघट झटपट खटपट 

गीले  अक्षरों  पर  डाल  देता 
भूरि  मिट्टी 
सूख  कर  सुन्दर हो जाते शब्द 

जब भर  जाती तख्ती 
झटपट  खटपट  सरपट से 
पूरे घर  में लिए घूमता 

शाम को मुल्तानी मिट्टी से 
पोत  कर तख्ती 
रख देता सूखने के लिए 

अगले दिन फिर लिखता 
नए शब्द 
सूरज  बादल  बिजली 
नदी  रेत   हवा    

इस तरह सीखे मैंने 
नए  नए  शब्द  लिखना 

सरकंडे की कलम से 
लिखे जा  सकते है  सुन्दर लेख 
किसी पंछी के पर  की 
कलम  से 
लिखे गए महाकाव्य 
      -----------

           [ दो ]
शब्दों के बाद के बाद कागज़ पर 
पूरे  वाक्य लिखना शुरू किया 
सरकंडे की कलम  नहीं थी 
लीड  पेन्सिल थी मेरे हाथ में 

पेन्सिल से लिखे वाक्यों को 
मिटाया जा सकता है रबर से 
पेन्सिल छीलने के लिए 
जरूरी थी एक ब्लेड या चाकू 

बच्चों के हाथ में 
नहीं दिया जा सकता चाकू 
ब्लेड की धार से कट जाती अंगुली 

बच्चों की पेँसिले 
छीला करते थे अध्यापक 
पेन्सिल से लिखे वाक्य 
उतने सुन्दर नहीं बनते थे 
जितने सुन्दर शब्द 
मैं लिख सकता था 
सरकंडे की कलम से 

जिस तरह सरकंडे की 
कलम से 
नहीं लिखे गए महाकाव्य 
पेन्सिल से  भी 
नहीं लिखी गई महागाथा 
     ------------

          [ तीन ]
मेरे हाथ में आया 
फाउन्टेन पेन, जिसे 
स्याही की दवात में 
नहीं डुबोना पड़ता था 

बहुत देर तक, बिना रुके 
लिख सकता था 
लम्बे लम्बे वाक्य 
मुझे कलम से 
प्रेम हो गया था 

घंटों लिखता रहता कागज़ पर 
जो मन में आता लिखता 
लिख कर काट देता 
फिर लिखता, फिर  काट देता 
भर जाता कागज़, फाड़ कर फेंक देता 

कितने अक्षर लिखे 
कितने काटे 
कितने कागज़ फाडे 
लिखना नहीं छोड़ा 
लिखते लिखते 
बन गई कुछ कवितायेँ 

फाउंटेन  से 
लिखी जा सकती है कवितायेँ 
बॉल पेन, जैल पेन और 
रोलर पेन से भी 
लिखी जा सकती है कवितायेँ 

महाकाव्य लिखने के लिए 
पंछी के  की 
जरूरत महसूस होती है मुझे 
      ---------------

[ ' उदभावना ' अंक ११०-१११ ( मार्च'२०१४ )  प्रकाशित ]