गुरुवार, 29 नवंबर 2012

सच का सामना


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कविता
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सच का सामना
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परछाई की तरह
मेरे साथ ही रहता है सच

कभी मेरे आगे कभी मेरे पीछे
कभी दायें कभी बाएं

कभी मेरे कद से भी
बड़ा हो जाता है सच
कभी बहुत बोना
कभी मुझ में
समा जाता है सच

झूठ डरता है सच से
सच डराता है मुझे
जब बहुत अधिक
डराता है सच
मैं भाग कर चला जाता हू
अँधेरे में
जहाँ  मेरी परछाई नहीं होती

अँधेरे में
बहुत स्पष्ट और अलौकिक
चमक लिए मिलता है सच

सच का सामना
रोशनी  में ही
किया जा सकता है
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कविता
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जो असहमत है
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विश्वास करते है
जनतांत्रिक मूल्यों में
समता, समानता और
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  के
पक्षधर है

किन्तु सहमत नहीं हो पाते
उनसे जो असहमत है
हर विषय पर, अपने को ही
समझते है सही
चाहते है सभी सहमत हों

यदि कोई व्यक्त करता है
असहमति, वह  या तो मूर्ख होता है
या फिर दुश्मन हमारा
असहमत होने का अर्थ है
विरोध कर रहा है, वह

व्यावहारिक लोग कभी
किसी से असहमत नहीं होते
वे सहमत के साथ भी
सहमत होते है.असहमत के साथ भी

समझदार लोग
तटस्थ रहते है
चुप रहते है
सहमति,असहमति के मुद्दे पर
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{साप्ताहिक  " शुक्रवार'  29' नवम्बर' २०१२ में प्रकाशित }

शनिवार, 22 सितंबर 2012

सही समय

कविता 
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सही  समय 
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सही  समय ज्ञात करना 
आसान  नहीं है 
अक्सर  हमें सही समय का 
पता  नहीं होता 

दीवारों  पर टंगी या
कलाई पर बंधी घड़ियाँ 
या तो समय से आगे होती है 
या फिर समय से पीछे 

शहर के घंटाघर की घड़ियाँ 
बंद पड़ी रहती है कई दिनों तक 
पुलिस लाइन में बजने वाले घंटों की 
आवाज़ सुनाई नहीं देती इन दिनों 

ऐसे  में सही समय  ज्ञात करना 
आसान नहीं है 
घड़ियाँ अगर सही भी चल रही हों 
तब भी ये कहना मुश्किल है 
वे समय सही बता रही है 

दरअसल समय , समय होता है 
आगे या पीछे हम होते है या घड़ियाँ 
अच्छा या बुरा जो होता है 
उसे तो होना ही है 
समय अच्छा या बुरा नहीं होता 
अच्छा या बुरा होता है जीवन 
एक ही समय में 
अनेक जीवन जी रहे होते है लोग 

समय के साथ चलता है जीवन 
चलते चलते ठहर जाता है जीवन 
समय न ठहरता है 
न  मुड कार देखता है 
मुड कर  देखता है जीवन 
समय आगे निकल जाता है 

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[ "अक्षर-पर्व " जुलाई ' २०१२ में प्रकाशित ]
 

बुधवार, 19 सितंबर 2012

पुरस्कार - सम्मान

कविता 
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पुरस्कार - सम्मान

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जिस तरह

पैसे और पानी का

कोई रंग नहीं होता

उसी तरह

पुरस्कार - सम्मन का भी

कोई रंग नहीं होता


पुरस्कार सम्मान

कहीं से भी मिले

ले लेना चाहिए


पुरस्कार सम्मान

लेते समय

विचार धारा को
दर किनार कर देना चाहिए

पुरस्कार-सम्मान
किसी सेठ साहूकार का हो
या अकादमी सरकार का
चाहे दे रही हो कोई विदेशी कम्पनी
अन्तोगत्वा हमारी
रचनात्मकता का सम्मान ही है

पुरस्कार -सम्मान
कंचन की तरह पवित्र होते है
कहा भी है किसी कवि ने 

परयो अपावन ठोर पर 
कंचन तजे ना कोय 
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{" शेष" जुलाई-सितम्बर- २०१२  में प्रकाशित }

बुधवार, 1 अगस्त 2012

स्मृति

कविता 

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स्मृति 

[ एक]

ठहरता नहीं कोई पल 

ठहरता नहीं बहता हुआ जल 

ठहरता नहीं पवन 


लौट कर नहीं आते 

पल, जल और पवन 


ठहरे रहते है शहर 

शहरों में ठहरी रहती है इमारतें 

इमारतों में ठहरी स्मृतियाँ 

स्मृतियों में  ठहरी रहती है उम्र 

उम्र में ठहरा रहता है प्रेम 


एक दिन जर्जर होकर 

ढह  जाएँगी  इमारतें 

रेत में दब जायेगें  शहर 

जीवित रहेगीं स्मृतियाँ 

स्मृतियों में जीवित रहेगा प्रेम 


प्रेम में जीवित रहेगें 

पल,जल और पवन 

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स्मृति 

[दो]

खड़ा हूँ मैं 

उस निर्जल स्थान पर 

जहाँ कभी बहता था झरना  

दूर तक सुनाई  देती थी 

जल की कल कल 


खड़ा हूँ मैं 

उस निस्पंद स्थान पर 

जहाँ हंसी बिखरते हुए 

मिली थी सांवली लड़की 


जल की कल कल में 

हंसी की खिल खिल में 

डूब गए थे मेरे शब्द 

जो कहे थे मैंने 

उस सांवली लड़की से 


खड़ा हूँ मैं 

उस निर्वाक स्थान पर 

जहाँ मौन पड़े है मेरे शब्द 


मेरे शब्द सुनने के लिए 

न झरना है 

न ही वह सांवली लड़की 

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[ ' जनसत्ता ' रविवार ,15 जुलाई 2012 के रविवारी पृष्ठ में प्रकाशित ]

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

डर

कविता 
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डर
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जबकि कोई दुश्मन नहीं है मेरा 
फिर भी डरा हुआ रहता हूँ 
डर है कि  निकलता ही नहीं 

दिखने में तो कोई दुश्मन नहीं लगता 
फिर भी पता नहीं
मन ही मन
 किसी ने पाल रखी हो दुश्मनी 

 ये सही है कि  
 मैंने किसी का हक नहीं मारा  
 किसी कि ज़मीन जायदाद  नहीं दबाई
 किसी को अपशब्द नहीं कहे  
फिर भी मुझे शक है  
किसी भी दिन सामने आ सकता है दुश्मन  


सच और खरी खरी कहना 
हँसी   हँसी में कटाक्ष करना 
झूठी प्रशंसा नहीं करना 
इतना बहुत है 
किसी को दुश्मन बनाने के लिए 

सुझाव भी  सहजता से नहीं लेते 
आलोचना तो बिलकुल बर्दाश्त नहीं करते 
किसी भी दिन मार सकते है चाक़ू 

सोचता हूँ चुप रहूँ  
पर कुछ भी नहीं बोलने को भी 
अपमान समझते है लोग 

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कविता 
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कम-कम 
[एक]

कम-कम में भी 
कट जाता है जीवन
खुशियाँ मिली कम
प्रेम मिला कम 
लोगों के दिल में 
जगह मिली कम 

चाय में मिली 
चीनी कम 
दाल में मिला 
नमक कम 
शराब  में मिला 
पानी कम 

दोस्तों  ने निभाई 
दोस्ती  कम
दुश्मनों ने निभाई 
दुश्मनी कम 


कुछ और अच्छा 
कट जाता जीवन 
दुःख भी 
मिले होते कम 

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कम-कम 
[दो]

कम-कम ही मिले 
नहीं मिलने से बेहतर 
कम ही मिले 

सबकी हो 
आकाश में साझेदारी 
एक टुकड़ा ज़मीन का 
सबको मिले 

पीने के लायक जल मिले 
जीने के लायक वायु मिले 
कम ही मिले पर सबको 
अन्न मिले

सम्पन्नता ,वैभव और 
भव्यता पर 
चाहे रहे चंद लोगों कि
इजारेदारी 
सम्मान-स्वाभिमान का 
हक  सबको मिले 

हर घर में हो चिराग 
रोशनी चाहे कम मिले 

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[शुक्रवार साहित्य  वार्षिकी   २०१२  में प्रकाशित ]

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

क्षितिज: कविता

क्षितिज: कविता: - Sent using Google Toolbar

प्रेम करने से पहले

कविता 
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प्रेम करने से पहले 
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उन्हें नहीं मालूम था 
प्रेम करने से पहले 
गोत्र  पता कर लेना चाहिए 

पंचों ने अवैध करार कर दिया 
प्रेम विवाह 
देश की सर्वोच्च न्यायपालिका  से
अधिक शक्तिशाली थी पंचायत 


उन्हें नहीं मालूम था 
प्रेम करने से पहले 
पूछ लेना चाहिए सरपंच से 


सबसे पहले 
पत्थर उसने मारा ,जिसने 
जिसने सबसे अधिक किये थे पाप 


तब तक मारते रहे 
जब तक प्राण विहीन 
नहीं होगये दो शरीर 


आदिम न्याय के तहत 
संगसार किया पंचायत ने 
पुलिस की मौजूदगी में 


उन्हें नहीं मालूम था 
प्रेम करने से पहले 
थानेदार सेपूछ लेना चाहिए था 
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{  'रचना-समय'  के कविता विशेषांक में प्रकाशित }

 

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

युद्ध

कविता 
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युद्ध 
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 सब कुछ बुध्दी और तर्क से 
ही तय नहीं होता 

   हथियारों  से लड़े युध्द
  ख़त्म हो जाते है एक दिन 
       बुध्दी और तर्क से लड़े युध्द
         कभी  ख़त्म नहीं  होते 
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 [' रचना -समय ' के कविता- विशेषांक में प्रकाशित]
 

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

चिंगारी

कविता 
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चिंगारी 
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दबी रहती है ईर्ष्या 
बरसों बरस
मन के किसी कोने में 

जैसे छुपी रहती है 
राख के ढेर में 
चिंगारी 

जैसे सुप्त रहती है 
स्मृति 
पहले प्रेम की 

एक दिन आता  है 
मौका 
अपने को उजागर  करने का 
प्रकट हो जाती है ईर्ष्या 

एक दिन आता है 
झोंका 
तेज हवा का 
सुलग उठती है चिंगारी 

एक दिन उठता ज्वार 
मन के महा समुद्र में 
उमड़ता है प्रेम स्मृति में 

चिंगारी 
प्रेम में भी है 
ईर्ष्या में भी और 
राख के ढेर में भी 
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डुबोया मुझको  होने ने 
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मुझे मेरे 
आलोचकों ने बचाया 
मेरे निंदकों ने 
याद रखा मुझे 

प्रशंसको ने 
चढाया मुझे पहाड पर 
जहाँ से मैं लुढक गया 
लुढकना ही था 


दोस्तों  ने 
बनाया मुझे 
मैं ही कृतध्न 
उनकी अपेक्षा पर 
खरा नहीं उतरा 


दुश्मन  बिना अपेक्षा के 
निबाह रहे है दुश्मनी 
दोस्तों की स्मृति से  बाहर 
दुश्मनों की नींद में 
जीवित हूँ मैं 


मुझे  इन दिनों 
दुश्मन याद आते न दोस्त 
याद आते है ग़ालिब 
डुबोया मुझको होने ने 
न होता मैं तो क्या होता 
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{  "वागर्थ"  जुलाई'  २०११ में  प्रकाशित }

सोमवार, 30 मई 2011

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता


कवितायेँ 
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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
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हम किसी को 
कुछ भी कह सकते है 
ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  है 
कोई हमें कुछ भी कह दे 
ये मानहानि  है हमारी 
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सहिष्णुता 
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कोई हमारी प्रशंसा करे 
चाहे झूठा  ही गुणगान करे 
 इतना तो सहन कर सकते है हम 

कोई आलोचना करे 
और  हम चुप बैठ जाएँ 
इतने भी सहिष्णु  नहीं है हम 
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स्वाभिमानी 
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जहाँ से हमें 
कुछ  प्राप्त नहीं हो रहा 
उनकी  क्यों सुने 
आखिर स्वाभिमानी  है हम 

जहाँ से हमें 
कुछ प्राप्त हो रहा है 
उनकी गाली भी सुन लेते है 
ये विनम्रता   है हमारी 
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अपने को जानना 
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अपने अन्दर झांको 
अपने को पहचानो 

पहले वे अपने को 
दूसरों की दृष्टि  से देखते थे 

अपने अन्दर झांकना 
शुरू किया   
अपने को पहचानना 
शुरू किया 

जब से स्वयं   को  जाना है 
अपने को   पहचाना   है               
बेहद दुखी है वे 
कितने   प्रतिभाशाली  है                   
आज तक किसी ने नहीं पहचाना 

सच  स्वयं को 
 स्वयं ही जानना पड़ता है 
 इस स्वार्थी  संसार में 
कौन,किसी को पहचानता है 
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आकाश में कुहरा घना है   
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बेईमान को मत कहो 
बेईमान 
भ्रष्टाचारी  को मत कहो 
भ्रष्ट 
व्यभिचारी को मत कहो 
अनैतिक 

सब की प्रशंसा  करो या 
चुप रहो 
अपने मुंह से
क्यों किसी को  
बुरा कहो 

यदि आपको 
प्राप्त  करा है सम्मान 
सब का सम्मान करो 

बचाए रखनी है 
अपनी प्रतिष्ठा 
सब का गुणगान करो 

किसी की कमी बताना 
व्यक्तिगत आलोचना है 

दुष्यंत कुमार के शब्दों में 
मत कहो 
आकाश में कुहरा घना है 
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[ 'शुक्रवार' २०-२६ मई २०११ में प्रकाशित]





  


गुरुवार, 12 मई 2011

साइकिल में बम

कविता  
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साईकिल   में  बम 
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पच्चीस  बरस पहले मैंने 
साईकिल चलाना  छोड़ कर 
खरीद ली  मोटर साईकिल 
काली साईकिल से 
काली  मोटर साईकिल पर आ गया 

मोटर साईकिल पर बैठ कर 
उड़ने का मज़ा 
कुछ और ही आया 
पर साईकिल जैसा आनंद  नहीं आया 

कही भी किसी भी गली में घूमा  लेना 
कही भी रोक कर खड़े हो जाना 
साईकिल का  हैंडिल पकडे पकडे 
पैदल पैदल घूम लेना 
मोटर साईकिल  में वैसी  सुविधा कंहाँ

किसी दोस्त या रिश्तेदार  के 
घर जाने पर , गली में 
दीवार  के सहारे  खड़ी कर दी 
या घर के अन्दर  तक ले गए 
बिना ताले के भी खड़ी रहती साईकिल 
तो चिंता की बात नहीं थी 

एक दिन मैटनी  शो में 
देर हो जाने पर , हड़बड़ी में 
पोलोविक्ट्री  सिनेमा की 
सीढ़ियों  पर साईकिल खड़ी कर दी 
टिकिट  विंडो  से सीधा 
हॉल  में  घुस  गया 

ढाई  घंटे तक, इंटरवेल  में भी 
साईकिल की याद नहीं आई 
फिल्म का  दी  एंड  होने पर 
ध्यान आया कि 
अरे, मैंने साईकिल तो 
स्टैंड  पर रखी ही नहीं थी 

दौड़ कर बहार आया 
देखा, साईकिल आराम से 
सीढियों  के नीचे खड़ी 
प्रतीक्षा  कर रही थी  मेरी 
मैंने साईकिल छुआ  तो 
साईकिल ने पूछा कैसी लगी  फिल्म 
फिल्म लाजवाब  थी 

हम बेखुदी में 
तुम को पुकारे  चले गए 

उन दिनों  साइकिले 
हवा से नहीं 
आदमी से भी 
बातें  किया करती थी 
ये तब कि बात है जिन दिनों 
साईकिल के छर्रे 
बम बनाने  के काम में नहीं लिए जाते थे 

एक शाम  चाँदपोल  में 
हनुमान जी  के मंदिर के बाहर
साईकिल खड़ी कर 
प्याऊ  पर पानी पीने  रूका 
पानी पी कर , पता नहीं 
किस धुन  में  घर पैदल ही चला आया 

सुबह जब घर से निकला 
साईकिल वहां नहीं थी 
जहाँ  उसे होना था 
घर में कहीं नहीं थी साईकिल 
परेशान, हैरान , दोस्तों के घर गया 
वहां वहां  गया 
जहाँ जहाँ  गया था कल 

पूरा दिन गुज़र गया 
कहीं नहीं मिली साईकिल 
मैं उदास  हो गया 
मुझे साईकिल से प्रेम था 

मां ने मेरी उदासी भांप  कर कहा 
हनुमान जी के लड्डू  चढ़ा  आ 
मिल जाएगी  साईकिल 

हनुमान जी का नाम सुनते ही 
मैं  चौंका  
दौड़  पड़ा मंदिर कि और 
वहां जा कर देखा 
प्याऊ  के पास 
बिजली  के खम्बे  के सहारे 
उदास खड़ी थी साईकिल 

चौबीस  घंटे  से एक ही मुद्रा में खड़ी 
साईकिल  नाराज़  लगी 
जैसे कह रही हो 
तुम्हारी, ये भूल  जाने की आदत  ठीक नहीं 
तब साईकिल  के कैरियर  पर लगे बस्तों में 
बम रखने की  सोच पैदा नहीं  हुई  थी 

पुरानी साईकिल की याद करते हुए 
पिछले दिनों मैं एक नै साईकिल 
खरीदने  की सोच रहा  था - कि
एक शाम  शहर में 
चांदपोल  हनुमान  जी के मंदिर सहित 
नो स्थानों  पर
जिन नो स्थानों  से 
मैं गुजरा हूँगा नो हज़ार बार 
नो नै नकोर  साइकिलों पर 
बस्तों में बंद नो बम 
फट पड़े सिलसिलेवार 

मांस के लोथड़ों और लाशों से 
पट गई शहर कि सड़कें  
मै दहशत  से भर उठा 

मैंने नै साईकिल 
खरीदने  का इरादा  छोड़  दिया 
हालाँकि  इसमें 
साईकिल का  कोई दोष  नहीं था 

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शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

कविता 
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जो सहमत नही  हैं

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विश्वास करते है 
जनतांत्रिक  मूल्यों  में 
समता, समानता और 
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  के 
पक्षधर है हम 

किन्तु सहमत हो नहीं पाते  उनसे 
जो असहमत है हम से 
हर विषय पर अपने को ही 
समझते है सही 
चाहते है ,सभी सहमत हों  हम से 

यदि कोई व्यक्त करता  है असहमति 
वह या तो मूर्ख होता है 
या फिर दुश्मन हमारा 
असहमत होने का अर्थ है 
विरोध कर रहा है वह 


व्यावहारिक  लोग कभी 
 किसी  से असहमत नहीं होते 
वे सहमत के साथ भी 
सहमत होते है  
 असहमत के साथ भी 


समझदार  लोग 
 तटस्थ  रहते है 
 चुप  ही रहते है 

सहमति \   असहमति  के मुद्दे  पर


( राजस्थान पत्रिका के रविवारीय  परिशिष्ट  "हम-तुम" में 
६ फरवरी ' २०११ के अंक  में प्रकाशित ) 

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

कविता 
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हवा को कैद  करने की साजिश 
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वे हवा को कैद कर कहते है 
मौसम का बयान करो 
उस चरित्रहीन  मौसम का 
जिसको तमीज़ नहीं है 
हरे और पीले पत्तों  में अंतर की 
उसकी बदतमीजी  का गवाह है 
ये सूखी टहनियों वाला पेड़ 

जवानी में ही बूढ़ा हो गया पेड़ 
जिसके पत्ते अभी 
ठंडी हवा में झूम भी नहीं पाए थे 
हवा को कैद करने की साजिश शुरू हो गई 

इस पेड़ की जड़ों में 
उन लोगों का खून है 
जो शब्दों को हवा में विचरने की 
आज़ादी  चाहते थे 
उन लोगों का ख्वाब  था कि
इस पेड़ से निकल ने वाली 
लोकतंत्र / स्वतंत्रता / समानता 
कि टहनियां पूरे जंगल में फ़ैल  जाएँगी 
जिसके पत्तों की हवा से 
शब्दों को नई जिन्दगी मिलेगी 

लेकिन उनके उतराधिकारी 
जंगल का दोहन कर 
अपने  शीशे  के घरों की 
सुरक्षा  में व्यस्त है 
हवा को कैद कर खुश है 

वो नहीं जानते की
हवा कभी कैद नहीं हो सकती 
ये हवा प्रचंड आंधी बन कर 
उनके शीशे के घरों को चूर कर देगी 
शीशे के करोड़ों टुकड़े खून के 
कतरों में बदल  जायेगें 
खून का हर कतरा  एक शब्द  होगा

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

कविता 
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जरूरी  कुछ भी नहीं है
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जरूरी कुछ भी नहीं है 
न तुम्हारा होना न मेरा होना 

उन सब दस्तावेजों को 
छुपा  देने से क्या होगा 
जिसे तुम षड़यंत्र  की शुरुआत समझते हो 
दोस्त  वो वास्तव में अंत है 
मेरा और तुम्हारा अंत 


फिर तुम स्वयं  समझदार हो
जानते हो जरूरी कुछ भी नहीं है 
पर करना  सब कुछ पड़ता है 


एक अभ्यस्त  सी जिन्दगी जीते रहना 
और रोटी के साथ 
कविता को पचाते रहना 


तुम ही बताओ 
क्या ये सब पूर्व नियोजित
षड़यंत्र  नहीं है , तुम्हारा और
मेरा होना चाहे अनायास रहा होगा
पर दोस्त ,तुम्हारा और मेरा 
जीना अनायास नहीं है


तुम  क्यों किसी षड़यंत्र में
भागीदार बनते  हो
संघर्ष क्यों नहीं करते 
जो हो रहा है उसके विरूद्ध 


जबकि जरूरी कुछ भी नहीं है
न तुम्हारा होना न मेरा होना
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[ प्रथम काव्य -संग्रह   ' शेष होते हुए '[ १९८५ से]
 

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

कविता 
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पड़ाव 
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फिर लौट कर 
उस ही गुलमोहर के
नीचे आ जाना 
यात्रा का अंत नहीं 
अंतहीन  यात्रा का एक  पड़ाव है 

जब मैं थक  जाता हूँ 
दौड़ते हुए लोगो के पीछे 
चीजों  के पीछे 
मैं फिर लौट कर 
गुलमोहर  के नीचे आ जाता हूँ 
जहाँ  से मैंने यात्रा शुरू की थी

ये सोच कर की पहले 
मेरी दिशा  सही नहीं थी 
फिर सुस्ता कर 
नई दिशा में चल देता हूँ 


जिस दिन मेरी यात्रा 
समाप्त हो जाएगी 
उस दिन ये गुलमोहर 
वहां  आ जायेगा 
जहाँ मेरी यात्रा का 
अंतिम पड़ाव होगा
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गुरुवार, 26 अगस्त 2010

कविता
-----------
अस्तित्व 
--------------
जब पूरी जिन्दगी ही
एक  समझौता  बन जाती है 
मुझे अपने किसी स्वप्न  के 
आत्महत्या  कर लेने पर दुख  नहीं होता 


चेहरे  पर बनावटी मुस्कान 
लिए ही जब जीना है 
जिन्दगी  सिर्फ मौत का 
इंतजार  लगती है 

ऐसे में किसी भी 
रेशमी सम्बन्ध  पर 
तेजाब डाल देने  पर 
मुझे कोई शिकायत नहीं होती

अपने टूटे हुये अस्तित्व को 
सहेज लेने का मोह
क्या अर्थ  रखता है 


जब टूटन ही जिन्दगी है 
किसी जुड़ना,अलग होना 
पर्यायवाची हो जाता है 


मुझ से तमाम जुड़े हुये 
अलग हुए लोगों को 
मुझ से संबंधों के 
संबोधनों के अर्थ 
जला देने चाहिए 


एक टूटे हुए अस्तित्व की
खोज अब बंद कर देनी चाहिए 
----------------------------------
 [प्रथम काव्य-संग्रह ['शेष होते हुये'-१९८५] से 

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

   कविता
-----------
भटकाव 
------------
मैं न भी जानता तो क्या होता 
जानता भी हूँ तो क्या हुआ 
मुझे इस  यात्रा में सम्मिलित  होना था 
और मैं हो गया  

ये सब ऐसे  ही हुआ जैसे 
मेरा जन्म हो गया 

ये बात और है कि 
मैं किसी के साथ  नहीं चल सका 
इसलिए  नहीं कि 
सभी लोग बेईमान या भ्रष्ट  थे 
या कि लोगो ने ही मुझे छोड़ दिया 


कारण जो भी रहा हो 
इस लम्बी यात्रा में 
मैं अकेला ही रह गया 


बस अब तक कि यात्रा में 
कुछ  खरोंचे 
जो मेरे जिस्म  पर रह गई है 
उनका दर्द ही मुझे रोके हुए है 
नहीं तो क्या मै 
यही पर खड़ा रहता 


अब किसी को दोष देने से क्या फायदा 
मैं ही उन लोगो के साथ हो गया था 
जिनकी  यात्रा एक बिंदु पर आकर  रूक गई 
और मैं अपना  पथ भूल गया

मैं अब भी  चल  रहा हूँ 
इस आशा में 
मुझे अपनी राह  कही तो मिलेगी 


नहीं भी मिले तो क्या 
मैं चल तो रहा ही हूँ 
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[ प्रथम काव्य  संग्रह 'शेष होते हुए '[१९८५] से]

सोमवार, 26 जुलाई 2010

कविता 
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जंगल  की आग 
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मैंने हर मौसम में 
वस्त्रों का रंग बदल कर
परिवेश में व्याप्त अँधेरे को 
मुट्ठी  में बंद सूरज फेंका है 


पर तटस्थता और 
स्तिथिप्रग्यता  ने 
हर मौसम को बर्फ कर दिया 


मेरे हर प्रयत्न को तुम्हारी 
सुनहरी देह ने डस लिया 
मेरी हथेलिओं पर 
उग आये जंगली पौधे 


हर मंच से तुमने 
बहार आने का ऐलान किया 


मैंने अपने ऊपर 
झुक आये आसमान  की 
परवाह  किये बिना 

तुम्हारी मुस्कान पर 


 भरोसा कर लिया 
एक स्वतंत्र  देश के 
सीलन भरे कटघरे में 
उखड़ी उखड़ी साँसे लेता रहा 


हर बार कुछ नारों से 
तुम मुझे बहलाते रहे 


अब जबकि मैं  अपनी 
हथेलिओं पर उग आये 
जंगल में आग लगाना चाहता हूँ 
तुम्हे अपने अस्तित्व की चिंता क्यों है
अच्छा हो की तुम 
तालियाँ सुनने के आदी 
तालियाँ बजाते हुए 
अपनी जमात में शामिल हो जावो  


तुम्हारा शासन  पूरी 
व्यवस्था  के साथ जल जाने वाला है 
मेरे जंगल में उठती हुयी आग से 
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[[ प्रथम काव्य- संग्रह - 'शेष होते हुये '[१९८५] से ]