गुरुवार, 12 मई 2011

साइकिल में बम

कविता  
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साईकिल   में  बम 
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पच्चीस  बरस पहले मैंने 
साईकिल चलाना  छोड़ कर 
खरीद ली  मोटर साईकिल 
काली साईकिल से 
काली  मोटर साईकिल पर आ गया 

मोटर साईकिल पर बैठ कर 
उड़ने का मज़ा 
कुछ और ही आया 
पर साईकिल जैसा आनंद  नहीं आया 

कही भी किसी भी गली में घूमा  लेना 
कही भी रोक कर खड़े हो जाना 
साईकिल का  हैंडिल पकडे पकडे 
पैदल पैदल घूम लेना 
मोटर साईकिल  में वैसी  सुविधा कंहाँ

किसी दोस्त या रिश्तेदार  के 
घर जाने पर , गली में 
दीवार  के सहारे  खड़ी कर दी 
या घर के अन्दर  तक ले गए 
बिना ताले के भी खड़ी रहती साईकिल 
तो चिंता की बात नहीं थी 

एक दिन मैटनी  शो में 
देर हो जाने पर , हड़बड़ी में 
पोलोविक्ट्री  सिनेमा की 
सीढ़ियों  पर साईकिल खड़ी कर दी 
टिकिट  विंडो  से सीधा 
हॉल  में  घुस  गया 

ढाई  घंटे तक, इंटरवेल  में भी 
साईकिल की याद नहीं आई 
फिल्म का  दी  एंड  होने पर 
ध्यान आया कि 
अरे, मैंने साईकिल तो 
स्टैंड  पर रखी ही नहीं थी 

दौड़ कर बहार आया 
देखा, साईकिल आराम से 
सीढियों  के नीचे खड़ी 
प्रतीक्षा  कर रही थी  मेरी 
मैंने साईकिल छुआ  तो 
साईकिल ने पूछा कैसी लगी  फिल्म 
फिल्म लाजवाब  थी 

हम बेखुदी में 
तुम को पुकारे  चले गए 

उन दिनों  साइकिले 
हवा से नहीं 
आदमी से भी 
बातें  किया करती थी 
ये तब कि बात है जिन दिनों 
साईकिल के छर्रे 
बम बनाने  के काम में नहीं लिए जाते थे 

एक शाम  चाँदपोल  में 
हनुमान जी  के मंदिर के बाहर
साईकिल खड़ी कर 
प्याऊ  पर पानी पीने  रूका 
पानी पी कर , पता नहीं 
किस धुन  में  घर पैदल ही चला आया 

सुबह जब घर से निकला 
साईकिल वहां नहीं थी 
जहाँ  उसे होना था 
घर में कहीं नहीं थी साईकिल 
परेशान, हैरान , दोस्तों के घर गया 
वहां वहां  गया 
जहाँ जहाँ  गया था कल 

पूरा दिन गुज़र गया 
कहीं नहीं मिली साईकिल 
मैं उदास  हो गया 
मुझे साईकिल से प्रेम था 

मां ने मेरी उदासी भांप  कर कहा 
हनुमान जी के लड्डू  चढ़ा  आ 
मिल जाएगी  साईकिल 

हनुमान जी का नाम सुनते ही 
मैं  चौंका  
दौड़  पड़ा मंदिर कि और 
वहां जा कर देखा 
प्याऊ  के पास 
बिजली  के खम्बे  के सहारे 
उदास खड़ी थी साईकिल 

चौबीस  घंटे  से एक ही मुद्रा में खड़ी 
साईकिल  नाराज़  लगी 
जैसे कह रही हो 
तुम्हारी, ये भूल  जाने की आदत  ठीक नहीं 
तब साईकिल  के कैरियर  पर लगे बस्तों में 
बम रखने की  सोच पैदा नहीं  हुई  थी 

पुरानी साईकिल की याद करते हुए 
पिछले दिनों मैं एक नै साईकिल 
खरीदने  की सोच रहा  था - कि
एक शाम  शहर में 
चांदपोल  हनुमान  जी के मंदिर सहित 
नो स्थानों  पर
जिन नो स्थानों  से 
मैं गुजरा हूँगा नो हज़ार बार 
नो नै नकोर  साइकिलों पर 
बस्तों में बंद नो बम 
फट पड़े सिलसिलेवार 

मांस के लोथड़ों और लाशों से 
पट गई शहर कि सड़कें  
मै दहशत  से भर उठा 

मैंने नै साईकिल 
खरीदने  का इरादा  छोड़  दिया 
हालाँकि  इसमें 
साईकिल का  कोई दोष  नहीं था 

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1 टिप्पणी:

  1. चौबीस घंटे से एक ही मुद्रा में खड़ी
    साईकिल नाराज़ लगी
    जैसे कह रही हो
    तुम्हारी, ये भूल जाने की आदत ठीक नहीं

    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति. कुछ कुछ केदारनाथ अग्रवाल की बात है इस कविता में. अजीवित वस्तुओं को जीवित करना आसान नहीं है.

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