शनिवार, 12 जुलाई 2014

कलम


कलम: तीन कवितायेँ 
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       [ एक ] 
किसी पंछी के पर को 
कभी कलम  नहीं बनाया 

सरकंडे की कलम को 
काली स्याही की दवात में 
डुबो कर, तख्ती पर 
लिखना सीखा मैंने 

कलम  कमल  कमला 
मदन   रतन    अमला 
पनघट झटपट खटपट 

गीले  अक्षरों  पर  डाल  देता 
भूरि  मिट्टी 
सूख  कर  सुन्दर हो जाते शब्द 

जब भर  जाती तख्ती 
झटपट  खटपट  सरपट से 
पूरे घर  में लिए घूमता 

शाम को मुल्तानी मिट्टी से 
पोत  कर तख्ती 
रख देता सूखने के लिए 

अगले दिन फिर लिखता 
नए शब्द 
सूरज  बादल  बिजली 
नदी  रेत   हवा    

इस तरह सीखे मैंने 
नए  नए  शब्द  लिखना 

सरकंडे की कलम से 
लिखे जा  सकते है  सुन्दर लेख 
किसी पंछी के पर  की 
कलम  से 
लिखे गए महाकाव्य 
      -----------

           [ दो ]
शब्दों के बाद के बाद कागज़ पर 
पूरे  वाक्य लिखना शुरू किया 
सरकंडे की कलम  नहीं थी 
लीड  पेन्सिल थी मेरे हाथ में 

पेन्सिल से लिखे वाक्यों को 
मिटाया जा सकता है रबर से 
पेन्सिल छीलने के लिए 
जरूरी थी एक ब्लेड या चाकू 

बच्चों के हाथ में 
नहीं दिया जा सकता चाकू 
ब्लेड की धार से कट जाती अंगुली 

बच्चों की पेँसिले 
छीला करते थे अध्यापक 
पेन्सिल से लिखे वाक्य 
उतने सुन्दर नहीं बनते थे 
जितने सुन्दर शब्द 
मैं लिख सकता था 
सरकंडे की कलम से 

जिस तरह सरकंडे की 
कलम से 
नहीं लिखे गए महाकाव्य 
पेन्सिल से  भी 
नहीं लिखी गई महागाथा 
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          [ तीन ]
मेरे हाथ में आया 
फाउन्टेन पेन, जिसे 
स्याही की दवात में 
नहीं डुबोना पड़ता था 

बहुत देर तक, बिना रुके 
लिख सकता था 
लम्बे लम्बे वाक्य 
मुझे कलम से 
प्रेम हो गया था 

घंटों लिखता रहता कागज़ पर 
जो मन में आता लिखता 
लिख कर काट देता 
फिर लिखता, फिर  काट देता 
भर जाता कागज़, फाड़ कर फेंक देता 

कितने अक्षर लिखे 
कितने काटे 
कितने कागज़ फाडे 
लिखना नहीं छोड़ा 
लिखते लिखते 
बन गई कुछ कवितायेँ 

फाउंटेन  से 
लिखी जा सकती है कवितायेँ 
बॉल पेन, जैल पेन और 
रोलर पेन से भी 
लिखी जा सकती है कवितायेँ 

महाकाव्य लिखने के लिए 
पंछी के  की 
जरूरत महसूस होती है मुझे 
      ---------------

[ ' उदभावना ' अंक ११०-१११ ( मार्च'२०१४ )  प्रकाशित ]

बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

राशि फल

कविता 
------  --
राशि -फल 
----------
मेरी राशि  क्या है 
मैं आज तक 
तय नहीं कर पाया 

यदि मैं जन्म दिनांक से 
राशि तय करता हूँ तो 
किस जन्म दिनांक से करूँ 
वह दिनांक जो मेरे 
हायर -सेकंडरी के प्रमाण पत्र में लिखी है 
या वह जन्म दिनांक जो माँ  बताया करती थी 
ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष  की कोई  तिथि 

यदि मैं नाम  से राशि तय करूँ 
किस नाम से तय करूँ 
वह नाम जिस नाम से 
मै  जाना जाता हूँ -या 
वह नाम जो मेरे पैदा होने के 
तत्काल  बाद रखा गया था -या 
वह नाम जो घर परिवार में 
पुकारा जाता है 

सुना था  कि 
एक जन्म पत्री  भी थी मेरी 
जिसमे मेरा नाम कुछ और है 
जन्म दिनांक कुछ और 
बचपन में मुझे कभी 
राशि देखने की जरूरत नहीं पड़ी 
जब जरूरत पड़ी 
जन्म पत्री  कही खो चुकी थी 

हर व्यावसायिक पत्र -पत्रिका में 
प्रकाशित होता है राशि-फल 
प्रति दिन - प्रति सप्ताह 
एक ही राशि  के लाखों लोगों का 
एक ही भविष्य - फल 

जिस मै बहुत हताश 
उदास - निराश होता हूँ 
पढने लगता हूँ तमाम जगह 
प्रकाशित राशि-फल 
किसी राशि से 
मेरी राशि नहीं मिलती 
किसी राशि में-फल में नहीं मिलता 
मुझे जीवन  का हल  

{ " राजस्थान सम्राट " ५ अक्टूबर' २०१३ में प्रकाशित }

राशि

कविता 
---------
मेरी राशि क्या है 
मैं आज तक 
तय नहीं कर पाया 

यदि मैं जन्म दिनांक से 
राशि तय करता हूँ तो 
किस जन्म दिनांक से करूँ 
वह दिनांक जो मेरे 
हायर सेंकडरी के प्रमाण पत्र  में लिखी है 
वह जन्म दिनांक जो माँ बताया करती थी 
ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की  कोई  तिथि 

यदि मै  नाम से  राशि तय करूँ 
किस नाम से तय करूँ 
वह नाम जिस नाम से से 
मैं जाना जाता हूँ -या 
वह नाम जो मेरे पैदा होने के 
तत्काल बाद रखा गया था -या 
वह नाम जो घर परिवार में 
पुकारा जाता है 

सुना था कि 
एक जन्म पत्री  भी थी मेरी 
जिसमे मेरा नाम कुछ और है 
जन्म दिनांक कुछ और 
बचपन में मुझे कभी 
राशि देखने की जरूरत नहीं पड़ी 
जब जरूरत पड़ी 
जन्म पत्री कहीं खो चुकी थी 

हर व्यावसायिक पत्र -पत्रिका में 
प्रकाशित होता है राशि फल 
प्रतिदिन- प्रति सप्ताह 
एक ही राशि के लाखों लोगों का 
एक ही भविष्य फल 

जिस दिन मै बहुत हताश 
उदास-निराश  होता हूँ 
पढने लगता हूँ तमाम जगह 
प्रकाशित  राशि फल 

किसी राशि से 
मेरी राशि नहीं मिलती 
किसी राशि में नहीं मिलता 
मुझे जीवन का हल

{ " राजस्थान सम्राट '  5 अक्टूबर' 2013  में प्रकाशित }

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

आग हर चीज़ में लगी हुई थी ।

तीन कविताएँ 
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   [ एक ]

आग हर चीज में लगी हुई  थी 
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पेट्रोल में ही नहीं 
आग हर चीज में लगी हुई थी 

गेहूँ, चावल, दाल , घी-तेल 
हल्दी, धनिया ,मिर्च और 
जीरे में ही नही 
नमक में भी आग लगी हुई थी 

हरी सब्जी,प्याज, लहसुन 
और टमाटर सुलग रहे थे 
फलों से उठती लपटों के पास 
खड़े रहना  तो संभव ही नहीं था 

देश में सम्पनता बढ़ी थी 
प्रति व्यक्ति आय में बढोतरी हुई थी 
एक अर्थशास्त्री  का कहना है कि 
अब किसान और मजदूर भी 
फल और सब्जी खाने लगे है 

जिनके पास अथाह घोषित सम्पति है 
और अथाह अघोषित  काला  धन 
महंगाई उन लोगों के कारण  नहीं 
महंगाई उन गरीब किसान-मजदूरों 
के कारण बढ़ी है जो अब 
फल-सब्जी ही नहीं खा रहे 
कपडे भी पहनने  लगे है 

आग वस्तुओं में ही नहीं 
पेट में भी लगी हुई थी 
हर जगह थी आग 
अगर नहीं थी आग 
तो चूल्हे में नहीं थी 
     -----------

      [दो] 
 मेरे होने का का प्रमाण पत्र 
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मैं हूँ  हाड मांस का 
एक चलता फिरता पुतला 
साँस चल रही है मेरी 
इस ही शहर  में 
रह रहा हूँ जन्म से  

मुझे हर बार 
प्रमाण देना पड़ता है 
जीवित हूँ मैं 

मुझे बार बार 
दिखाना पड़ता है 
मतदाता पहचान पत्र 
पैन कार्ड या 
ड्राइविंग लाइसेंस 

मैं रहता हूँ 
इस ही शहर में 
प्रमाणित करने के लिए 
दिखाना पड़ता है राशन कार्ड 
बिजली का बिल 
टेलीफोन का बिल 
यदि ये सब नहीं मेरे पास 
मेरे होने का कोई प्रमाण नहीं है 

जब मेरे घर में नहीं थी बिजली 
नहीं था टेलीफोन 
मेरे पास नहीं था मतदाता पहचान पत्र 
ड्राइविंग लाइसेंस, पैन कार्ड 
तब भी मैं था 
मुझसे कोई नहीं मांगता था 
मेरे होने का प्रमाण पत्र 

जब मेरे पास नहीं था 
मेरे होने का प्रमाण पत्र 
शहर के बाज़ार
गलियां और चौराहे 
पहचानते थे मुझे 

बचपन में जब कभी 
भटक जाता 
मेरे पितामह का नाम बताने पर 
कोई भी मुझे छोड़ जाता था घर तक 
मेरे पितामह के पास 
कोई पहचान पत्र नहीं था 

आज यदि मेरे पास नहीं हो 
कोई पहचान पत्र 
यदि मैं नहीं बनवाता 
आधार कार्ड 
तो क्या मेरे होना 
होगा मेरे नहीं होना 

मेरे होना कोई 
महत्व नहीं रखता 
महत्वपूर्ण है 
मेरे होने का प्रमाण पत्र 
     -------------

    [तीन]
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जो अभी खोई नहीं 
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एक थैली में बंद है 
कुछ पुराने फ़ोउन्तेन पेन 
ख़राब हो चुके लाइटर 
भोंथरे नेल कटर 
जंग लगे ओपनर और की-चेन 

अब जबकि एक से एक 
उम्दा बाल पेन, जैल पेन 
रोलर पेन उपलब्ध है बाज़ार में 
मैं साधारण बाल पेन से लिखता हूँ 

पहले नए-नए  फ़ोउन्तेन पेन 
एकत्रित करने का शौक था मुझे 
मेरी थैली में आज भी रखा है 
एक चाइनीज पेन 
जिस से मैंने बी. ए.  की परीक्षा थी थी 
अब स्याही वाले फ़ोउन्तेन पेन का 
चलन नहीं रहा 
तब परीक्षा में बाल पेन से 
लिखने की अनुमति नहीं थी 

जेब में पड़ा रहता था 
एक न एक ओपनर 
पता नहीं कब बीयर की बोतल 
खोलने की जरूरत पड  जाये 
यद्पि ओपनर की अनुलब्धता पर 
कई मित्र  दांतों  से  खोल लेते थे बोतल 

जिसके  पास होता था लाइटर 
उसके सिगरेट  जलाने का 
अंदाज़ ही कुछ अलग होताथा 
मेरे पास थे कई आकृतियों में 
नए-नए की-चेन 
बहु उपयोगी नेल कटर  
उन में से बहुत सी 
वस्तुएं खो गई 
कुछ रह गई मित्रों के पास 

वर्ष में एक दो बार 
उलट-पलट कर देखता हूँ 
बची हुई वस्तुओं  को 
सोचता हूँ 
इस यूज़  एंड थ्रो के समय में 
क्या उपयोगिता है इस कबाड़ की 

बहुत देर तक 
देखते रहने के बाद 
खो जाता हूँ स्मृतियों में 
उन खोई हुई वस्तुओं की 
जो फिर कभी मिली नहीं 

एक बार फिर 
सहेज कर रख देता हूँ 
उन तमाम वस्तुओं को 
जो अभी खोई नहीं 
    -----------


['मधुमती' सितम्बर ' २०१३ में  प्रकाशित]

 

 

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

अंतरात्मा

कविता 

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अन्तर्रात्मा

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दिखाई  नहीं देती
दिखाई तो
पहले भी नहीं देती थी
कहना चाहिए
सुनाई नहीं देती
इन दिनों
अन्तर्रात्मा की आवाज़

आवाजे  तो बहुत है
चीखने, चिल्लाने की
हँसने, रोने की
बहलाने, फुसलाने की
आरोप, प्रत्यारोप की
कोई स्वर ऐसा नहीं
जो जगा सके
अन्तर्रात्मा को

गायन भी बहुत है
वादन भी बहुत है
आलाप  नहीं
प्रलाप बहुत है
कोई ऐसी लहर नहीं
जो छू सके
अन्तर्रात्मा को

आत्माएं भी बहुत है
कुछ भटकती, कुछ सिसकती
कुछ आत्मलीन , कुछ मलिन
परम आत्माएं तो
बहुत मिल जाती है
अन्तर्रात्मा
कही नहीं मिलती

    ------------

प्रेम और श्रद्धा 
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मैं  लोगों से मिलने पर 
हाथ  जोड़ता हूँ, या फिर 
हाथ  मिलाता हूँ 
किसी  के गले नहीं पड़ता 
न  ही पैर पड़ता हूँ 

कई  लोगों में 
उमड़ता  प्रेम 
भींच  लेते है सीने से लगा कर 
दम घुटने लगता है 

कई लोगों में 
उमडती है श्रद्धा 
झुक  जाते है टखनों तक 
इतने कि-
शर्म  आने लगती है 

पता नहीं क्यों 
मैं जितना प्रेम करने वालों से 
डरता हूँ , उतना ही 
श्रद्धा रखने वालों से भी 
   --------------

[ ' प्रगतिशील वसुधा ' -अंक ९४ -जन- मार्च' २०१३  में प्रकाशित]

 

शुक्रवार, 14 जून 2013

कौवे : तीन कविताएं

कविता 
--------------

कौवे :     तीन   कवितायेँ 
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        [  एक ]

इन दिनों शहर से
कहीं बहुत दूर 
निकल गए है  कौवे 
अब किसी घर की 
मुंडेर पर नहीं सुनाई  देती 
काँव .......    काँव .........

कौवे की काँव .. काँव 
संदेशा लाती थी 
विरहनियों  के लिए 
मेरे मुंडेरे कागा बोले 
कोई आ  रहा .........

पिया का संदेशा  लाने पर 
कौवे को लालच देती  थीं 
सोने की चोंच  मढ़ाने  का 

विरह्नियाँ कौवे   से 
व्यक्त  करती थीं व्यथा 
कागा सब तन खाइयो 
चुन चुन   खाइयो मांस 
दो नैना मत   खाइयो 
पिया मिलन  की आस 

कोवे  विरह्नियों की 
व्यथा से   व्यथित 
मुंडेर  से   उड  कर 
चले जाते  थे  सन्देशा  लाने 
        --------

         [ दो ] 

कौवे की कर्कश आवाज़ 
बदसूरत  रूप रंग  भी 
मोहक  लगता था  बच्चों को 

कौवे जब छीन कर 
ले जाते थे बच्चों के 
हाथ रोटी, तो बुरा लगता था 

कौवे  की चतुराई से 
चकित थे  बच्चे 
कौवे की  बुद्धिमत्ता  की 
कहानी  पढ़ कर 
किस तरह बर्तन के 
पैंदे में पड़े  पानी  को 
कंकड़  डाल -डाल  कर 
सतह   पर ले आया था 
प्यासा   कौवा 

पौराणिक पक्षी  कौवे की 
काग  दृष्टि के कायल थे सभी 
कौवे की काँव -काँव  से 
परेशान  होने  के  बावजूद 
कौवे  का  बोलना 
अपशगुन  का सूचक  नहीं था 

           -----------

          [ तीन ]

पता नहीं  शहर  से 
दूर  क्यों  चले  गए  कौवे 
अब  सिर्फ  श्मशान  में 
दिखाई  देते है  कौवे 

एक दिन किसी निकट  के 
रिश्तेदार  की  मृत्यु के बाद 
तीये  की क्रिया  हेतु गया था श्मशान 


पंडित जी ने 
राख के ढेर से हड्डियाँ  चुनने  के बाद 
आग  जला  कर टिकटी  के ऊपर 
चावल से भरा मिट्टी  का कलश 
रखा था  चावल  पकाने  के लिए 

पके  हुए चावल एक दोने में 
कलश  के मुंह पर रख कर 
हम प्रतीक्षा  कर रहे थे 
कौवे  के आने की  

दूर दूर  तक कहीं नहीं थे कौवे 
पंडित जी  के आह्रवान  करने पर 
दस-पंद्रह मिनट  बाद 
कहीं से उड  कर आये तीन-चार कौवे 

ठिठकते हुए कलश पर बैठ  कर 
चोंच  में चावल  दबा कर 
उड  गए  कौवे 
तीये  की क्रिया  पूरी  हो गई  थी 

मृतात्मा  के परलोक में 
पहुँच जाने का संकेत 
दे गए थे कौवे 

मै  सोच रहा था 
कितना जरूरी है 
हमारे जीवन में 
कौवे का होना 

अब जबकि 
शहर से बहुत दूर 
चले गए है 
कितने दिन नज़र आयेंगे 
श्मशान में  कोवे 

श्मशान  शहर के बीच 
आ गया है 
कौवे  चले गए है 
शहर   से  दूर 

--------------



[  ' वागर्थ'  जून' २०१३  अंक  २ १ ५    में   प्रकाशित ]

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

सच का सामना


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कविता
-------
सच का सामना
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परछाई की तरह
मेरे साथ ही रहता है सच

कभी मेरे आगे कभी मेरे पीछे
कभी दायें कभी बाएं

कभी मेरे कद से भी
बड़ा हो जाता है सच
कभी बहुत बोना
कभी मुझ में
समा जाता है सच

झूठ डरता है सच से
सच डराता है मुझे
जब बहुत अधिक
डराता है सच
मैं भाग कर चला जाता हू
अँधेरे में
जहाँ  मेरी परछाई नहीं होती

अँधेरे में
बहुत स्पष्ट और अलौकिक
चमक लिए मिलता है सच

सच का सामना
रोशनी  में ही
किया जा सकता है
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कविता
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जो असहमत है
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विश्वास करते है
जनतांत्रिक मूल्यों में
समता, समानता और
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  के
पक्षधर है

किन्तु सहमत नहीं हो पाते
उनसे जो असहमत है
हर विषय पर, अपने को ही
समझते है सही
चाहते है सभी सहमत हों

यदि कोई व्यक्त करता है
असहमति, वह  या तो मूर्ख होता है
या फिर दुश्मन हमारा
असहमत होने का अर्थ है
विरोध कर रहा है, वह

व्यावहारिक लोग कभी
किसी से असहमत नहीं होते
वे सहमत के साथ भी
सहमत होते है.असहमत के साथ भी

समझदार लोग
तटस्थ रहते है
चुप रहते है
सहमति,असहमति के मुद्दे पर
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{साप्ताहिक  " शुक्रवार'  29' नवम्बर' २०१२ में प्रकाशित }

शनिवार, 22 सितंबर 2012

सही समय

कविता 
-----------
सही  समय 
------------------
सही  समय ज्ञात करना 
आसान  नहीं है 
अक्सर  हमें सही समय का 
पता  नहीं होता 

दीवारों  पर टंगी या
कलाई पर बंधी घड़ियाँ 
या तो समय से आगे होती है 
या फिर समय से पीछे 

शहर के घंटाघर की घड़ियाँ 
बंद पड़ी रहती है कई दिनों तक 
पुलिस लाइन में बजने वाले घंटों की 
आवाज़ सुनाई नहीं देती इन दिनों 

ऐसे  में सही समय  ज्ञात करना 
आसान नहीं है 
घड़ियाँ अगर सही भी चल रही हों 
तब भी ये कहना मुश्किल है 
वे समय सही बता रही है 

दरअसल समय , समय होता है 
आगे या पीछे हम होते है या घड़ियाँ 
अच्छा या बुरा जो होता है 
उसे तो होना ही है 
समय अच्छा या बुरा नहीं होता 
अच्छा या बुरा होता है जीवन 
एक ही समय में 
अनेक जीवन जी रहे होते है लोग 

समय के साथ चलता है जीवन 
चलते चलते ठहर जाता है जीवन 
समय न ठहरता है 
न  मुड कार देखता है 
मुड कर  देखता है जीवन 
समय आगे निकल जाता है 

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[ "अक्षर-पर्व " जुलाई ' २०१२ में प्रकाशित ]
 

बुधवार, 19 सितंबर 2012

पुरस्कार - सम्मान

कविता 
------------
पुरस्कार - सम्मान

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जिस तरह

पैसे और पानी का

कोई रंग नहीं होता

उसी तरह

पुरस्कार - सम्मन का भी

कोई रंग नहीं होता


पुरस्कार सम्मान

कहीं से भी मिले

ले लेना चाहिए


पुरस्कार सम्मान

लेते समय

विचार धारा को
दर किनार कर देना चाहिए

पुरस्कार-सम्मान
किसी सेठ साहूकार का हो
या अकादमी सरकार का
चाहे दे रही हो कोई विदेशी कम्पनी
अन्तोगत्वा हमारी
रचनात्मकता का सम्मान ही है

पुरस्कार -सम्मान
कंचन की तरह पवित्र होते है
कहा भी है किसी कवि ने 

परयो अपावन ठोर पर 
कंचन तजे ना कोय 
--
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{" शेष" जुलाई-सितम्बर- २०१२  में प्रकाशित }

बुधवार, 1 अगस्त 2012

स्मृति

कविता 

---------------

स्मृति 

[ एक]

ठहरता नहीं कोई पल 

ठहरता नहीं बहता हुआ जल 

ठहरता नहीं पवन 


लौट कर नहीं आते 

पल, जल और पवन 


ठहरे रहते है शहर 

शहरों में ठहरी रहती है इमारतें 

इमारतों में ठहरी स्मृतियाँ 

स्मृतियों में  ठहरी रहती है उम्र 

उम्र में ठहरा रहता है प्रेम 


एक दिन जर्जर होकर 

ढह  जाएँगी  इमारतें 

रेत में दब जायेगें  शहर 

जीवित रहेगीं स्मृतियाँ 

स्मृतियों में जीवित रहेगा प्रेम 


प्रेम में जीवित रहेगें 

पल,जल और पवन 

    --------------

स्मृति 

[दो]

खड़ा हूँ मैं 

उस निर्जल स्थान पर 

जहाँ कभी बहता था झरना  

दूर तक सुनाई  देती थी 

जल की कल कल 


खड़ा हूँ मैं 

उस निस्पंद स्थान पर 

जहाँ हंसी बिखरते हुए 

मिली थी सांवली लड़की 


जल की कल कल में 

हंसी की खिल खिल में 

डूब गए थे मेरे शब्द 

जो कहे थे मैंने 

उस सांवली लड़की से 


खड़ा हूँ मैं 

उस निर्वाक स्थान पर 

जहाँ मौन पड़े है मेरे शब्द 


मेरे शब्द सुनने के लिए 

न झरना है 

न ही वह सांवली लड़की 

       ---------------

[ ' जनसत्ता ' रविवार ,15 जुलाई 2012 के रविवारी पृष्ठ में प्रकाशित ]

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

डर

कविता 
----------                               
डर
------
जबकि कोई दुश्मन नहीं है मेरा 
फिर भी डरा हुआ रहता हूँ 
डर है कि  निकलता ही नहीं 

दिखने में तो कोई दुश्मन नहीं लगता 
फिर भी पता नहीं
मन ही मन
 किसी ने पाल रखी हो दुश्मनी 

 ये सही है कि  
 मैंने किसी का हक नहीं मारा  
 किसी कि ज़मीन जायदाद  नहीं दबाई
 किसी को अपशब्द नहीं कहे  
फिर भी मुझे शक है  
किसी भी दिन सामने आ सकता है दुश्मन  


सच और खरी खरी कहना 
हँसी   हँसी में कटाक्ष करना 
झूठी प्रशंसा नहीं करना 
इतना बहुत है 
किसी को दुश्मन बनाने के लिए 

सुझाव भी  सहजता से नहीं लेते 
आलोचना तो बिलकुल बर्दाश्त नहीं करते 
किसी भी दिन मार सकते है चाक़ू 

सोचता हूँ चुप रहूँ  
पर कुछ भी नहीं बोलने को भी 
अपमान समझते है लोग 

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कविता 
-----------
कम-कम 
[एक]

कम-कम में भी 
कट जाता है जीवन
खुशियाँ मिली कम
प्रेम मिला कम 
लोगों के दिल में 
जगह मिली कम 

चाय में मिली 
चीनी कम 
दाल में मिला 
नमक कम 
शराब  में मिला 
पानी कम 

दोस्तों  ने निभाई 
दोस्ती  कम
दुश्मनों ने निभाई 
दुश्मनी कम 


कुछ और अच्छा 
कट जाता जीवन 
दुःख भी 
मिले होते कम 

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कम-कम 
[दो]

कम-कम ही मिले 
नहीं मिलने से बेहतर 
कम ही मिले 

सबकी हो 
आकाश में साझेदारी 
एक टुकड़ा ज़मीन का 
सबको मिले 

पीने के लायक जल मिले 
जीने के लायक वायु मिले 
कम ही मिले पर सबको 
अन्न मिले

सम्पन्नता ,वैभव और 
भव्यता पर 
चाहे रहे चंद लोगों कि
इजारेदारी 
सम्मान-स्वाभिमान का 
हक  सबको मिले 

हर घर में हो चिराग 
रोशनी चाहे कम मिले 

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[शुक्रवार साहित्य  वार्षिकी   २०१२  में प्रकाशित ]

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

क्षितिज: कविता

क्षितिज: कविता: - Sent using Google Toolbar

प्रेम करने से पहले

कविता 
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प्रेम करने से पहले 
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उन्हें नहीं मालूम था 
प्रेम करने से पहले 
गोत्र  पता कर लेना चाहिए 

पंचों ने अवैध करार कर दिया 
प्रेम विवाह 
देश की सर्वोच्च न्यायपालिका  से
अधिक शक्तिशाली थी पंचायत 


उन्हें नहीं मालूम था 
प्रेम करने से पहले 
पूछ लेना चाहिए सरपंच से 


सबसे पहले 
पत्थर उसने मारा ,जिसने 
जिसने सबसे अधिक किये थे पाप 


तब तक मारते रहे 
जब तक प्राण विहीन 
नहीं होगये दो शरीर 


आदिम न्याय के तहत 
संगसार किया पंचायत ने 
पुलिस की मौजूदगी में 


उन्हें नहीं मालूम था 
प्रेम करने से पहले 
थानेदार सेपूछ लेना चाहिए था 
    -----------------------

{  'रचना-समय'  के कविता विशेषांक में प्रकाशित }

 

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

युद्ध

कविता 
-----------

युद्ध 
---------



 सब कुछ बुध्दी और तर्क से 
ही तय नहीं होता 

   हथियारों  से लड़े युध्द
  ख़त्म हो जाते है एक दिन 
       बुध्दी और तर्क से लड़े युध्द
         कभी  ख़त्म नहीं  होते 
    --------------------------------------
     
 [' रचना -समय ' के कविता- विशेषांक में प्रकाशित]
 

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

चिंगारी

कविता 
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चिंगारी 
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दबी रहती है ईर्ष्या 
बरसों बरस
मन के किसी कोने में 

जैसे छुपी रहती है 
राख के ढेर में 
चिंगारी 

जैसे सुप्त रहती है 
स्मृति 
पहले प्रेम की 

एक दिन आता  है 
मौका 
अपने को उजागर  करने का 
प्रकट हो जाती है ईर्ष्या 

एक दिन आता है 
झोंका 
तेज हवा का 
सुलग उठती है चिंगारी 

एक दिन उठता ज्वार 
मन के महा समुद्र में 
उमड़ता है प्रेम स्मृति में 

चिंगारी 
प्रेम में भी है 
ईर्ष्या में भी और 
राख के ढेर में भी 
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डुबोया मुझको  होने ने 
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मुझे मेरे 
आलोचकों ने बचाया 
मेरे निंदकों ने 
याद रखा मुझे 

प्रशंसको ने 
चढाया मुझे पहाड पर 
जहाँ से मैं लुढक गया 
लुढकना ही था 


दोस्तों  ने 
बनाया मुझे 
मैं ही कृतध्न 
उनकी अपेक्षा पर 
खरा नहीं उतरा 


दुश्मन  बिना अपेक्षा के 
निबाह रहे है दुश्मनी 
दोस्तों की स्मृति से  बाहर 
दुश्मनों की नींद में 
जीवित हूँ मैं 


मुझे  इन दिनों 
दुश्मन याद आते न दोस्त 
याद आते है ग़ालिब 
डुबोया मुझको होने ने 
न होता मैं तो क्या होता 
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{  "वागर्थ"  जुलाई'  २०११ में  प्रकाशित }

सोमवार, 30 मई 2011

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता


कवितायेँ 
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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
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हम किसी को 
कुछ भी कह सकते है 
ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  है 
कोई हमें कुछ भी कह दे 
ये मानहानि  है हमारी 
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सहिष्णुता 
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कोई हमारी प्रशंसा करे 
चाहे झूठा  ही गुणगान करे 
 इतना तो सहन कर सकते है हम 

कोई आलोचना करे 
और  हम चुप बैठ जाएँ 
इतने भी सहिष्णु  नहीं है हम 
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स्वाभिमानी 
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जहाँ से हमें 
कुछ  प्राप्त नहीं हो रहा 
उनकी  क्यों सुने 
आखिर स्वाभिमानी  है हम 

जहाँ से हमें 
कुछ प्राप्त हो रहा है 
उनकी गाली भी सुन लेते है 
ये विनम्रता   है हमारी 
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अपने को जानना 
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अपने अन्दर झांको 
अपने को पहचानो 

पहले वे अपने को 
दूसरों की दृष्टि  से देखते थे 

अपने अन्दर झांकना 
शुरू किया   
अपने को पहचानना 
शुरू किया 

जब से स्वयं   को  जाना है 
अपने को   पहचाना   है               
बेहद दुखी है वे 
कितने   प्रतिभाशाली  है                   
आज तक किसी ने नहीं पहचाना 

सच  स्वयं को 
 स्वयं ही जानना पड़ता है 
 इस स्वार्थी  संसार में 
कौन,किसी को पहचानता है 
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आकाश में कुहरा घना है   
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बेईमान को मत कहो 
बेईमान 
भ्रष्टाचारी  को मत कहो 
भ्रष्ट 
व्यभिचारी को मत कहो 
अनैतिक 

सब की प्रशंसा  करो या 
चुप रहो 
अपने मुंह से
क्यों किसी को  
बुरा कहो 

यदि आपको 
प्राप्त  करा है सम्मान 
सब का सम्मान करो 

बचाए रखनी है 
अपनी प्रतिष्ठा 
सब का गुणगान करो 

किसी की कमी बताना 
व्यक्तिगत आलोचना है 

दुष्यंत कुमार के शब्दों में 
मत कहो 
आकाश में कुहरा घना है 
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[ 'शुक्रवार' २०-२६ मई २०११ में प्रकाशित]