बुधवार, 1 अगस्त 2012
शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012
डर
कविता
----------
डर
------
जबकि कोई दुश्मन नहीं है मेरा
फिर भी डरा हुआ रहता हूँ
डर है कि निकलता ही नहीं
दिखने में तो कोई दुश्मन नहीं लगता
फिर भी पता नहीं
मन ही मन
किसी ने पाल रखी हो दुश्मनी
ये सही है कि
मैंने किसी का हक नहीं मारा
किसी कि ज़मीन जायदाद नहीं दबाई
किसी को अपशब्द नहीं कहे
फिर भी मुझे शक है
किसी भी दिन सामने आ सकता है दुश्मन
सच और खरी खरी कहना
हँसी हँसी में कटाक्ष करना
झूठी प्रशंसा नहीं करना
इतना बहुत है
किसी को दुश्मन बनाने के लिए
सुझाव भी सहजता से नहीं लेते
आलोचना तो बिलकुल बर्दाश्त नहीं करते
किसी भी दिन मार सकते है चाक़ू
सोचता हूँ चुप रहूँ
पर कुछ भी नहीं बोलने को भी
अपमान समझते है लोग
------------------------------
कविता
-----------
कम-कम
[एक]
कम-कम में भी
कट जाता है जीवन
खुशियाँ मिली कम प्रेम मिला कम
लोगों के दिल में
जगह मिली कम
चाय में मिली
चीनी कम
दाल में मिला
नमक कम
शराब में मिला
पानी कम
दोस्तों ने निभाई
दोस्ती कम
दुश्मनों ने निभाई
दुश्मनी कम
कुछ और अच्छा
कट जाता जीवन
दुःख भी
मिले होते कम
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कम-कम
[दो]
कम-कम ही मिले
नहीं मिलने से बेहतर
कम ही मिले
सबकी हो
आकाश में साझेदारी
एक टुकड़ा ज़मीन का
सबको मिले
पीने के लायक जल मिले
जीने के लायक वायु मिले
कम ही मिले पर सबको
अन्न मिले
सम्पन्नता ,वैभव और
भव्यता पर
चाहे रहे चंद लोगों कि
इजारेदारी
सम्मान-स्वाभिमान का
हक सबको मिले
हर घर में हो चिराग
रोशनी चाहे कम मिले
----------------------------
[शुक्रवार साहित्य वार्षिकी २०१२ में प्रकाशित ]
मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011
प्रेम करने से पहले
कविता
--------
प्रेम करने से पहले
-----------------------
उन्हें नहीं मालूम था
प्रेम करने से पहले
गोत्र पता कर लेना चाहिए
पंचों ने अवैध करार कर दिया
प्रेम विवाह
देश की सर्वोच्च न्यायपालिका से
अधिक शक्तिशाली थी पंचायत
उन्हें नहीं मालूम था
प्रेम करने से पहले
पूछ लेना चाहिए सरपंच से
सबसे पहले
पत्थर उसने मारा ,जिसने
जिसने सबसे अधिक किये थे पाप
तब तक मारते रहे
जब तक प्राण विहीन
नहीं होगये दो शरीर
आदिम न्याय के तहत
संगसार किया पंचायत ने
पुलिस की मौजूदगी में
उन्हें नहीं मालूम था
प्रेम करने से पहले
थानेदार सेपूछ लेना चाहिए था
-----------------------
{ 'रचना-समय' के कविता विशेषांक में प्रकाशित }
--------
प्रेम करने से पहले
-----------------------
उन्हें नहीं मालूम था
प्रेम करने से पहले
गोत्र पता कर लेना चाहिए
पंचों ने अवैध करार कर दिया
प्रेम विवाह
देश की सर्वोच्च न्यायपालिका से
अधिक शक्तिशाली थी पंचायत
उन्हें नहीं मालूम था
प्रेम करने से पहले
पूछ लेना चाहिए सरपंच से
सबसे पहले
पत्थर उसने मारा ,जिसने
जिसने सबसे अधिक किये थे पाप
तब तक मारते रहे
जब तक प्राण विहीन
नहीं होगये दो शरीर
आदिम न्याय के तहत
संगसार किया पंचायत ने
पुलिस की मौजूदगी में
उन्हें नहीं मालूम था
प्रेम करने से पहले
थानेदार सेपूछ लेना चाहिए था
-----------------------
{ 'रचना-समय' के कविता विशेषांक में प्रकाशित }
मंगलवार, 30 अगस्त 2011
युद्ध
कविता
-----------
युद्ध
---------
सब कुछ बुध्दी और तर्क से
ही तय नहीं होता
हथियारों से लड़े युध्द
ख़त्म हो जाते है एक दिन
बुध्दी और तर्क से लड़े युध्द
कभी ख़त्म नहीं होते
--------------------------------------
[' रचना -समय ' के कविता- विशेषांक में प्रकाशित]
गुरुवार, 7 जुलाई 2011
चिंगारी
कविता
---------
चिंगारी
--------
दबी रहती है ईर्ष्या
बरसों बरस
मन के किसी कोने में
जैसे छुपी रहती है
राख के ढेर में
चिंगारी
जैसे सुप्त रहती है
स्मृति
पहले प्रेम की
एक दिन आता है
मौका
अपने को उजागर करने का
प्रकट हो जाती है ईर्ष्या
एक दिन आता है
झोंका
तेज हवा का
सुलग उठती है चिंगारी
एक दिन उठता ज्वार
मन के महा समुद्र में
उमड़ता है प्रेम स्मृति में
चिंगारी
प्रेम में भी है
ईर्ष्या में भी और
राख के ढेर में भी
-------------------------
डुबोया मुझको होने ने
-----------------------------
मुझे मेरे
आलोचकों ने बचाया
मेरे निंदकों ने
याद रखा मुझे
प्रशंसको ने
चढाया मुझे पहाड पर
जहाँ से मैं लुढक गया
लुढकना ही था
दोस्तों ने
बनाया मुझे
मैं ही कृतध्न
उनकी अपेक्षा पर
खरा नहीं उतरा
दुश्मन बिना अपेक्षा के
निबाह रहे है दुश्मनी
दोस्तों की स्मृति से बाहर
दुश्मनों की नींद में
जीवित हूँ मैं
मुझे इन दिनों
दुश्मन याद आते न दोस्त
याद आते है ग़ालिब
डुबोया मुझको होने ने
न होता मैं तो क्या होता
----------------------------------
{ "वागर्थ" जुलाई' २०११ में प्रकाशित }
---------
चिंगारी
--------
दबी रहती है ईर्ष्या
बरसों बरस
मन के किसी कोने में
जैसे छुपी रहती है
राख के ढेर में
चिंगारी
जैसे सुप्त रहती है
स्मृति
पहले प्रेम की
एक दिन आता है
मौका
अपने को उजागर करने का
प्रकट हो जाती है ईर्ष्या
एक दिन आता है
झोंका
तेज हवा का
सुलग उठती है चिंगारी
एक दिन उठता ज्वार
मन के महा समुद्र में
उमड़ता है प्रेम स्मृति में
चिंगारी
प्रेम में भी है
ईर्ष्या में भी और
राख के ढेर में भी
-------------------------
डुबोया मुझको होने ने
-----------------------------
मुझे मेरे
आलोचकों ने बचाया
मेरे निंदकों ने
याद रखा मुझे
प्रशंसको ने
चढाया मुझे पहाड पर
जहाँ से मैं लुढक गया
लुढकना ही था
दोस्तों ने
बनाया मुझे
मैं ही कृतध्न
उनकी अपेक्षा पर
खरा नहीं उतरा
दुश्मन बिना अपेक्षा के
निबाह रहे है दुश्मनी
दोस्तों की स्मृति से बाहर
दुश्मनों की नींद में
जीवित हूँ मैं
मुझे इन दिनों
दुश्मन याद आते न दोस्त
याद आते है ग़ालिब
डुबोया मुझको होने ने
न होता मैं तो क्या होता
----------------------------------
{ "वागर्थ" जुलाई' २०११ में प्रकाशित }
सोमवार, 30 मई 2011
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
कवितायेँ
-------------
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
--------------------------
हम किसी को
कुछ भी कह सकते है
ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है
कोई हमें कुछ भी कह दे
ये मानहानि है हमारी
---------------------
सहिष्णुता
--------------
कोई हमारी प्रशंसा करे
चाहे झूठा ही गुणगान करे
इतना तो सहन कर सकते है हम
कोई आलोचना करे
और हम चुप बैठ जाएँ
इतने भी सहिष्णु नहीं है हम
------------------------------
स्वाभिमानी
------------
जहाँ से हमें
कुछ प्राप्त नहीं हो रहा
उनकी क्यों सुने
आखिर स्वाभिमानी है हम
जहाँ से हमें
कुछ प्राप्त हो रहा है
उनकी गाली भी सुन लेते है
ये विनम्रता है हमारी
----------------------
अपने को जानना
----------------
अपने अन्दर झांको
अपने को पहचानो
पहले वे अपने को
दूसरों की दृष्टि से देखते थे
अपने अन्दर झांकना
शुरू किया
अपने को पहचानना
शुरू किया
जब से स्वयं को जाना है
अपने को पहचाना है
बेहद दुखी है वे
कितने प्रतिभाशाली है
आज तक किसी ने नहीं पहचाना
सच स्वयं को
स्वयं ही जानना पड़ता है
इस स्वार्थी संसार में
कौन,किसी को पहचानता है
---------------------------
आकाश में कुहरा घना है
-----------------------------
बेईमान को मत कहो
बेईमान
भ्रष्टाचारी को मत कहो
भ्रष्ट
व्यभिचारी को मत कहो
अनैतिक
सब की प्रशंसा करो या
चुप रहो
अपने मुंह से
क्यों किसी को
बुरा कहो
यदि आपको
प्राप्त करा है सम्मान
सब का सम्मान करो
बचाए रखनी है
अपनी प्रतिष्ठा
सब का गुणगान करो
किसी की कमी बताना
व्यक्तिगत आलोचना है
दुष्यंत कुमार के शब्दों में
मत कहो
आकाश में कुहरा घना है
--------------------------
[ 'शुक्रवार' २०-२६ मई २०११ में प्रकाशित]
गुरुवार, 12 मई 2011
साइकिल में बम
कविता
----------
साईकिल में बम
---------------------
पच्चीस बरस पहले मैंने
साईकिल चलाना छोड़ कर
खरीद ली मोटर साईकिल
काली साईकिल से
काली मोटर साईकिल पर आ गया
मोटर साईकिल पर बैठ कर
उड़ने का मज़ा
कुछ और ही आया
पर साईकिल जैसा आनंद नहीं आया
कही भी किसी भी गली में घूमा लेना
कही भी रोक कर खड़े हो जाना
साईकिल का हैंडिल पकडे पकडे
पैदल पैदल घूम लेना
मोटर साईकिल में वैसी सुविधा कंहाँ
किसी दोस्त या रिश्तेदार के
घर जाने पर , गली में
दीवार के सहारे खड़ी कर दी
या घर के अन्दर तक ले गए
बिना ताले के भी खड़ी रहती साईकिल
तो चिंता की बात नहीं थी
एक दिन मैटनी शो में
देर हो जाने पर , हड़बड़ी में
पोलोविक्ट्री सिनेमा की
सीढ़ियों पर साईकिल खड़ी कर दी
टिकिट विंडो से सीधा
हॉल में घुस गया
ढाई घंटे तक, इंटरवेल में भी
साईकिल की याद नहीं आई
फिल्म का दी एंड होने पर
ध्यान आया कि
अरे, मैंने साईकिल तो
स्टैंड पर रखी ही नहीं थी
दौड़ कर बहार आया
देखा, साईकिल आराम से
सीढियों के नीचे खड़ी
प्रतीक्षा कर रही थी मेरी
मैंने साईकिल छुआ तो
साईकिल ने पूछा कैसी लगी फिल्म
फिल्म लाजवाब थी
हम बेखुदी में
तुम को पुकारे चले गए
उन दिनों साइकिले
हवा से नहीं
आदमी से भी
बातें किया करती थी
ये तब कि बात है जिन दिनों
साईकिल के छर्रे
बम बनाने के काम में नहीं लिए जाते थे
एक शाम चाँदपोल में
हनुमान जी के मंदिर के बाहर
साईकिल खड़ी कर
प्याऊ पर पानी पीने रूका
पानी पी कर , पता नहीं
किस धुन में घर पैदल ही चला आया
सुबह जब घर से निकला
साईकिल वहां नहीं थी
जहाँ उसे होना था
घर में कहीं नहीं थी साईकिल
परेशान, हैरान , दोस्तों के घर गया
वहां वहां गया
जहाँ जहाँ गया था कल
पूरा दिन गुज़र गया
कहीं नहीं मिली साईकिल
मैं उदास हो गया
मुझे साईकिल से प्रेम था
मां ने मेरी उदासी भांप कर कहा
हनुमान जी के लड्डू चढ़ा आ
मिल जाएगी साईकिल
हनुमान जी का नाम सुनते ही
मैं चौंका
दौड़ पड़ा मंदिर कि और
वहां जा कर देखा
प्याऊ के पास
बिजली के खम्बे के सहारे
उदास खड़ी थी साईकिल
चौबीस घंटे से एक ही मुद्रा में खड़ी
साईकिल नाराज़ लगी
जैसे कह रही हो
तुम्हारी, ये भूल जाने की आदत ठीक नहीं
तब साईकिल के कैरियर पर लगे बस्तों में
बम रखने की सोच पैदा नहीं हुई थी
पुरानी साईकिल की याद करते हुए
पिछले दिनों मैं एक नै साईकिल
खरीदने की सोच रहा था - कि
एक शाम शहर में
चांदपोल हनुमान जी के मंदिर सहित
नो स्थानों पर
जिन नो स्थानों से
मैं गुजरा हूँगा नो हज़ार बार
नो नै नकोर साइकिलों पर
बस्तों में बंद नो बम
फट पड़े सिलसिलेवार
मांस के लोथड़ों और लाशों से
पट गई शहर कि सड़कें
मै दहशत से भर उठा
मैंने नै साईकिल
खरीदने का इरादा छोड़ दिया
हालाँकि इसमें
साईकिल का कोई दोष नहीं था
-------------------------------------------
शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011
कविता
-----------
जो सहमत नही हैं
---------------------
विश्वास करते है
जनतांत्रिक मूल्यों में
समता, समानता और
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के
पक्षधर है हम
किन्तु सहमत हो नहीं पाते उनसे
जो असहमत है हम से
हर विषय पर अपने को ही
समझते है सही
चाहते है ,सभी सहमत हों हम से
यदि कोई व्यक्त करता है असहमति
वह या तो मूर्ख होता है
या फिर दुश्मन हमारा
असहमत होने का अर्थ है
विरोध कर रहा है वह
व्यावहारिक लोग कभी
किसी से असहमत नहीं होते
वे सहमत के साथ भी
सहमत होते है
असहमत के साथ भी
समझदार लोग
तटस्थ रहते है
चुप ही रहते है
सहमति \ असहमति के मुद्दे पर
( राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट "हम-तुम" में
६ फरवरी ' २०११ के अंक में प्रकाशित )
मंगलवार, 30 नवंबर 2010
कविता
----------
हवा को कैद करने की साजिश
-----------------------------------
वे हवा को कैद कर कहते है
मौसम का बयान करो
उस चरित्रहीन मौसम का
जिसको तमीज़ नहीं है
हरे और पीले पत्तों में अंतर की
उसकी बदतमीजी का गवाह है
ये सूखी टहनियों वाला पेड़
जवानी में ही बूढ़ा हो गया पेड़
जिसके पत्ते अभी
ठंडी हवा में झूम भी नहीं पाए थे
हवा को कैद करने की साजिश शुरू हो गई
इस पेड़ की जड़ों में
उन लोगों का खून है
जो शब्दों को हवा में विचरने की
आज़ादी चाहते थे
उन लोगों का ख्वाब था कि
इस पेड़ से निकल ने वाली
लोकतंत्र / स्वतंत्रता / समानता
कि टहनियां पूरे जंगल में फ़ैल जाएँगी
जिसके पत्तों की हवा से
शब्दों को नई जिन्दगी मिलेगी
लेकिन उनके उतराधिकारी
जंगल का दोहन कर
अपने शीशे के घरों की
सुरक्षा में व्यस्त है
हवा को कैद कर खुश है
वो नहीं जानते की
हवा कभी कैद नहीं हो सकती
ये हवा प्रचंड आंधी बन कर
उनके शीशे के घरों को चूर कर देगी
शीशे के करोड़ों टुकड़े खून के
कतरों में बदल जायेगें
खून का हर कतरा एक शब्द होगा
----------
हवा को कैद करने की साजिश
-----------------------------------
वे हवा को कैद कर कहते है
मौसम का बयान करो
उस चरित्रहीन मौसम का
जिसको तमीज़ नहीं है
हरे और पीले पत्तों में अंतर की
उसकी बदतमीजी का गवाह है
ये सूखी टहनियों वाला पेड़
जवानी में ही बूढ़ा हो गया पेड़
जिसके पत्ते अभी
ठंडी हवा में झूम भी नहीं पाए थे
हवा को कैद करने की साजिश शुरू हो गई
इस पेड़ की जड़ों में
उन लोगों का खून है
जो शब्दों को हवा में विचरने की
आज़ादी चाहते थे
उन लोगों का ख्वाब था कि
इस पेड़ से निकल ने वाली
लोकतंत्र / स्वतंत्रता / समानता
कि टहनियां पूरे जंगल में फ़ैल जाएँगी
जिसके पत्तों की हवा से
शब्दों को नई जिन्दगी मिलेगी
लेकिन उनके उतराधिकारी
जंगल का दोहन कर
अपने शीशे के घरों की
सुरक्षा में व्यस्त है
हवा को कैद कर खुश है
वो नहीं जानते की
हवा कभी कैद नहीं हो सकती
ये हवा प्रचंड आंधी बन कर
उनके शीशे के घरों को चूर कर देगी
शीशे के करोड़ों टुकड़े खून के
कतरों में बदल जायेगें
खून का हर कतरा एक शब्द होगा
शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010
कविता
------------
जरूरी कुछ भी नहीं है
--------------------------
जरूरी कुछ भी नहीं है
न तुम्हारा होना न मेरा होना
उन सब दस्तावेजों को
छुपा देने से क्या होगा
जिसे तुम षड़यंत्र की शुरुआत समझते हो
दोस्त वो वास्तव में अंत है
मेरा और तुम्हारा अंत
फिर तुम स्वयं समझदार हो
जानते हो जरूरी कुछ भी नहीं है
पर करना सब कुछ पड़ता है
एक अभ्यस्त सी जिन्दगी जीते रहना
और रोटी के साथ
कविता को पचाते रहना
तुम ही बताओ
क्या ये सब पूर्व नियोजित
षड़यंत्र नहीं है , तुम्हारा और
मेरा होना चाहे अनायास रहा होगा
पर दोस्त ,तुम्हारा और मेरा
जीना अनायास नहीं है
तुम क्यों किसी षड़यंत्र में
भागीदार बनते हो
संघर्ष क्यों नहीं करते
जो हो रहा है उसके विरूद्ध
जबकि जरूरी कुछ भी नहीं है
न तुम्हारा होना न मेरा होना
-----------------------------------------
[ प्रथम काव्य -संग्रह ' शेष होते हुए '[ १९८५ से]
------------
जरूरी कुछ भी नहीं है
--------------------------
जरूरी कुछ भी नहीं है
न तुम्हारा होना न मेरा होना
उन सब दस्तावेजों को
छुपा देने से क्या होगा
जिसे तुम षड़यंत्र की शुरुआत समझते हो
दोस्त वो वास्तव में अंत है
मेरा और तुम्हारा अंत
फिर तुम स्वयं समझदार हो
जानते हो जरूरी कुछ भी नहीं है
पर करना सब कुछ पड़ता है
एक अभ्यस्त सी जिन्दगी जीते रहना
और रोटी के साथ
कविता को पचाते रहना
तुम ही बताओ
क्या ये सब पूर्व नियोजित
षड़यंत्र नहीं है , तुम्हारा और
मेरा होना चाहे अनायास रहा होगा
पर दोस्त ,तुम्हारा और मेरा
जीना अनायास नहीं है
तुम क्यों किसी षड़यंत्र में
भागीदार बनते हो
संघर्ष क्यों नहीं करते
जो हो रहा है उसके विरूद्ध
जबकि जरूरी कुछ भी नहीं है
न तुम्हारा होना न मेरा होना
-----------------------------------------
[ प्रथम काव्य -संग्रह ' शेष होते हुए '[ १९८५ से]
सोमवार, 4 अक्टूबर 2010
कविता
-----------
पड़ाव
-------------
फिर लौट कर
उस ही गुलमोहर के
नीचे आ जाना
यात्रा का अंत नहीं
अंतहीन यात्रा का एक पड़ाव है
जब मैं थक जाता हूँ
दौड़ते हुए लोगो के पीछे
चीजों के पीछे
मैं फिर लौट कर
गुलमोहर के नीचे आ जाता हूँ
जहाँ से मैंने यात्रा शुरू की थी
ये सोच कर की पहले
मेरी दिशा सही नहीं थी
फिर सुस्ता कर
नई दिशा में चल देता हूँ
जिस दिन मेरी यात्रा
समाप्त हो जाएगी
उस दिन ये गुलमोहर
वहां आ जायेगा
जहाँ मेरी यात्रा का
अंतिम पड़ाव होगा
----------------------
-----------
पड़ाव
-------------
फिर लौट कर
उस ही गुलमोहर के
नीचे आ जाना
यात्रा का अंत नहीं
अंतहीन यात्रा का एक पड़ाव है
जब मैं थक जाता हूँ
दौड़ते हुए लोगो के पीछे
चीजों के पीछे
मैं फिर लौट कर
गुलमोहर के नीचे आ जाता हूँ
जहाँ से मैंने यात्रा शुरू की थी
ये सोच कर की पहले
मेरी दिशा सही नहीं थी
फिर सुस्ता कर
नई दिशा में चल देता हूँ
जिस दिन मेरी यात्रा
समाप्त हो जाएगी
उस दिन ये गुलमोहर
वहां आ जायेगा
जहाँ मेरी यात्रा का
अंतिम पड़ाव होगा
----------------------
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
कविता
-----------
अस्तित्व
--------------
जब पूरी जिन्दगी ही
एक समझौता बन जाती है
मुझे अपने किसी स्वप्न के
आत्महत्या कर लेने पर दुख नहीं होता
चेहरे पर बनावटी मुस्कान
लिए ही जब जीना है
जिन्दगी सिर्फ मौत का
इंतजार लगती है
ऐसे में किसी भी
रेशमी सम्बन्ध पर
तेजाब डाल देने पर
मुझे कोई शिकायत नहीं होती
अपने टूटे हुये अस्तित्व को
सहेज लेने का मोह
क्या अर्थ रखता है
जब टूटन ही जिन्दगी है
किसी जुड़ना,अलग होना
पर्यायवाची हो जाता है
मुझ से तमाम जुड़े हुये
अलग हुए लोगों को
मुझ से संबंधों के
संबोधनों के अर्थ
जला देने चाहिए
एक टूटे हुए अस्तित्व की
खोज अब बंद कर देनी चाहिए
----------------------------------
[प्रथम काव्य-संग्रह ['शेष होते हुये'-१९८५] से
-----------
अस्तित्व
--------------
जब पूरी जिन्दगी ही
एक समझौता बन जाती है
मुझे अपने किसी स्वप्न के
आत्महत्या कर लेने पर दुख नहीं होता
चेहरे पर बनावटी मुस्कान
लिए ही जब जीना है
जिन्दगी सिर्फ मौत का
इंतजार लगती है
ऐसे में किसी भी
रेशमी सम्बन्ध पर
तेजाब डाल देने पर
मुझे कोई शिकायत नहीं होती
अपने टूटे हुये अस्तित्व को
सहेज लेने का मोह
क्या अर्थ रखता है
जब टूटन ही जिन्दगी है
किसी जुड़ना,अलग होना
पर्यायवाची हो जाता है
मुझ से तमाम जुड़े हुये
अलग हुए लोगों को
मुझ से संबंधों के
संबोधनों के अर्थ
जला देने चाहिए
एक टूटे हुए अस्तित्व की
खोज अब बंद कर देनी चाहिए
----------------------------------
[प्रथम काव्य-संग्रह ['शेष होते हुये'-१९८५] से
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
कविता
-----------
भटकाव
------------
मैं न भी जानता तो क्या होता
जानता भी हूँ तो क्या हुआ
मुझे इस यात्रा में सम्मिलित होना था
और मैं हो गया
ये सब ऐसे ही हुआ जैसे
मेरा जन्म हो गया
ये बात और है कि
मैं किसी के साथ नहीं चल सका
इसलिए नहीं कि
सभी लोग बेईमान या भ्रष्ट थे
या कि लोगो ने ही मुझे छोड़ दिया
कारण जो भी रहा हो
इस लम्बी यात्रा में
मैं अकेला ही रह गया
बस अब तक कि यात्रा में
कुछ खरोंचे
जो मेरे जिस्म पर रह गई है
उनका दर्द ही मुझे रोके हुए है
नहीं तो क्या मै
यही पर खड़ा रहता
अब किसी को दोष देने से क्या फायदा
मैं ही उन लोगो के साथ हो गया था
जिनकी यात्रा एक बिंदु पर आकर रूक गई
और मैं अपना पथ भूल गया
मैं अब भी चल रहा हूँ
इस आशा में
मुझे अपनी राह कही तो मिलेगी
नहीं भी मिले तो क्या
मैं चल तो रहा ही हूँ
----------------------------
[ प्रथम काव्य संग्रह 'शेष होते हुए '[१९८५] से]
-----------
भटकाव
------------
मैं न भी जानता तो क्या होता
जानता भी हूँ तो क्या हुआ
मुझे इस यात्रा में सम्मिलित होना था
और मैं हो गया
ये सब ऐसे ही हुआ जैसे
मेरा जन्म हो गया
ये बात और है कि
मैं किसी के साथ नहीं चल सका
इसलिए नहीं कि
सभी लोग बेईमान या भ्रष्ट थे
या कि लोगो ने ही मुझे छोड़ दिया
कारण जो भी रहा हो
इस लम्बी यात्रा में
मैं अकेला ही रह गया
बस अब तक कि यात्रा में
कुछ खरोंचे
जो मेरे जिस्म पर रह गई है
उनका दर्द ही मुझे रोके हुए है
नहीं तो क्या मै
यही पर खड़ा रहता
अब किसी को दोष देने से क्या फायदा
मैं ही उन लोगो के साथ हो गया था
जिनकी यात्रा एक बिंदु पर आकर रूक गई
और मैं अपना पथ भूल गया
मैं अब भी चल रहा हूँ
इस आशा में
मुझे अपनी राह कही तो मिलेगी
नहीं भी मिले तो क्या
मैं चल तो रहा ही हूँ
----------------------------
[ प्रथम काव्य संग्रह 'शेष होते हुए '[१९८५] से]
सोमवार, 26 जुलाई 2010
कविता
--------
जंगल की आग
---------------------
मैंने हर मौसम में
वस्त्रों का रंग बदल कर
परिवेश में व्याप्त अँधेरे को
मुट्ठी में बंद सूरज फेंका है
पर तटस्थता और
स्तिथिप्रग्यता ने
हर मौसम को बर्फ कर दिया
मेरे हर प्रयत्न को तुम्हारी
सुनहरी देह ने डस लिया
मेरी हथेलिओं पर
उग आये जंगली पौधे
हर मंच से तुमने
बहार आने का ऐलान किया
मैंने अपने ऊपर
झुक आये आसमान की
परवाह किये बिना
तुम्हारी मुस्कान पर
भरोसा कर लिया
एक स्वतंत्र देश के
सीलन भरे कटघरे में
उखड़ी उखड़ी साँसे लेता रहा
हर बार कुछ नारों से
तुम मुझे बहलाते रहे
अब जबकि मैं अपनी
हथेलिओं पर उग आये
जंगल में आग लगाना चाहता हूँ
तुम्हे अपने अस्तित्व की चिंता क्यों है
अच्छा हो की तुम
तालियाँ सुनने के आदी
तालियाँ बजाते हुए
अपनी जमात में शामिल हो जावो
तुम्हारा शासन पूरी
व्यवस्था के साथ जल जाने वाला है
मेरे जंगल में उठती हुयी आग से
-----------------------------------------
[[ प्रथम काव्य- संग्रह - 'शेष होते हुये '[१९८५] से ]
--------
जंगल की आग
---------------------
मैंने हर मौसम में
वस्त्रों का रंग बदल कर
परिवेश में व्याप्त अँधेरे को
मुट्ठी में बंद सूरज फेंका है
पर तटस्थता और
स्तिथिप्रग्यता ने
हर मौसम को बर्फ कर दिया
मेरे हर प्रयत्न को तुम्हारी
सुनहरी देह ने डस लिया
मेरी हथेलिओं पर
उग आये जंगली पौधे
हर मंच से तुमने
बहार आने का ऐलान किया
मैंने अपने ऊपर
झुक आये आसमान की
परवाह किये बिना
तुम्हारी मुस्कान पर
भरोसा कर लिया
एक स्वतंत्र देश के
सीलन भरे कटघरे में
उखड़ी उखड़ी साँसे लेता रहा
हर बार कुछ नारों से
तुम मुझे बहलाते रहे
अब जबकि मैं अपनी
हथेलिओं पर उग आये
जंगल में आग लगाना चाहता हूँ
तुम्हे अपने अस्तित्व की चिंता क्यों है
अच्छा हो की तुम
तालियाँ सुनने के आदी
तालियाँ बजाते हुए
अपनी जमात में शामिल हो जावो
तुम्हारा शासन पूरी
व्यवस्था के साथ जल जाने वाला है
मेरे जंगल में उठती हुयी आग से
-----------------------------------------
[[ प्रथम काव्य- संग्रह - 'शेष होते हुये '[१९८५] से ]
शनिवार, 10 जुलाई 2010
kavita
तीन कवितायेँ
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[एक]
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
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हम किसी को
कुछ भी कह सकते है
ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है
कोई हमे कुछ भी कह दे
ये मानहानि है हमारी
[दो]
सहिष्णुता
------------
कोई हमारी प्रशंसा करे
चाहे झूठा ही गुणगान करे
इतना तो सहन सकते है
कोई आलोचना करे
हम चुप बैठ जाएँ
इतने भी सहिष्णु नहीं है हम
[तीन]
स्वाभिमानी
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जहाँ से हमें
कुछ प्राप्त नहीं हो रहा
उनकी क्यों सुने
आखिर स्वाभिमानी है हम
जहाँ से हमे
कुछ प्राप्त हो रहा है
उनकी गाली भी सुन लेते है
ये विनम्रता है हमारी
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[एक]
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
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हम किसी को
कुछ भी कह सकते है
ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है
कोई हमे कुछ भी कह दे
ये मानहानि है हमारी
[दो]
सहिष्णुता
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कोई हमारी प्रशंसा करे
चाहे झूठा ही गुणगान करे
इतना तो सहन सकते है
कोई आलोचना करे
हम चुप बैठ जाएँ
इतने भी सहिष्णु नहीं है हम
[तीन]
स्वाभिमानी
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जहाँ से हमें
कुछ प्राप्त नहीं हो रहा
उनकी क्यों सुने
आखिर स्वाभिमानी है हम
जहाँ से हमे
कुछ प्राप्त हो रहा है
उनकी गाली भी सुन लेते है
ये विनम्रता है हमारी
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शुक्रवार, 11 जून 2010
कविता
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मैं अभिमन्यु नहीं हूँ
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मैं अभिमन्यु नहीं हूँ
फिर भी चक्रव्यूह में फंस गया हूँ
जब मैं गर्भ में था
इस व्यूह की रचना होरही थी
मैं महाभारत का पात्र नहीं हूँ
स्वतंत्र भारत का नागरिक हूँ
मेरा बाप अर्जुन नहीं था
एक परतंत्र नागरिक था
मैंने आपनी आँखे
एक सुखद स्वप्न में खोली थी
मेरे चेहरे पर घाव
हथियारों के नहीं
उन नारों के है
जो हर मौसम में फेकें गए है
यह शरीर, ढांचा
रोटी खाने से नहीं हुआ है
यह सब तो
स्वादिष्ट आश्वासनों के कारण है
मैं विद्रोह नहीं करूँगा
मैं एक शिक्षित नागरिक हूँ
मैंने अंग्रेजी में हिंदी पढ़ी है
मेरा देश भारत दैट इज इंडिया है
मैं भूख से नहीं नहीं मर सकता
भारत एक कृषि प्रधान देश है
मैं बेरोजगार भी नहीं हूँ
भारत एक क्लर्क प्रधान देश है
मुझे समानता का अधिकार है
समानता अवसर प्रदान करती है
भारत एक अवसर प्रदान देश है
जिस व्यूह में मैं फंसा हूँ
उसे तोडना मुझे नहीं आता
मेरी मृत्यु अभिमन्यु जैसी ही होगी
किन्तु इतिहास में मेरा नाम नहीं होगा
क्योकि मैं अभिमन्यु नहीं हूँ
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मैं अभिमन्यु नहीं हूँ
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मैं अभिमन्यु नहीं हूँ
फिर भी चक्रव्यूह में फंस गया हूँ
जब मैं गर्भ में था
इस व्यूह की रचना होरही थी
मैं महाभारत का पात्र नहीं हूँ
स्वतंत्र भारत का नागरिक हूँ
मेरा बाप अर्जुन नहीं था
एक परतंत्र नागरिक था
मैंने आपनी आँखे
एक सुखद स्वप्न में खोली थी
मेरे चेहरे पर घाव
हथियारों के नहीं
उन नारों के है
जो हर मौसम में फेकें गए है
यह शरीर, ढांचा
रोटी खाने से नहीं हुआ है
यह सब तो
स्वादिष्ट आश्वासनों के कारण है
मैं विद्रोह नहीं करूँगा
मैं एक शिक्षित नागरिक हूँ
मैंने अंग्रेजी में हिंदी पढ़ी है
मेरा देश भारत दैट इज इंडिया है
मैं भूख से नहीं नहीं मर सकता
भारत एक कृषि प्रधान देश है
मैं बेरोजगार भी नहीं हूँ
भारत एक क्लर्क प्रधान देश है
मुझे समानता का अधिकार है
समानता अवसर प्रदान करती है
भारत एक अवसर प्रदान देश है
जिस व्यूह में मैं फंसा हूँ
उसे तोडना मुझे नहीं आता
मेरी मृत्यु अभिमन्यु जैसी ही होगी
किन्तु इतिहास में मेरा नाम नहीं होगा
क्योकि मैं अभिमन्यु नहीं हूँ
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