लकड़ी का संदूक
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इतना बड़ा लकड़ी का संदूक
पूरे पैर फैला कर
जिस पर सो सकता था बचपन
देख सकता था स्वप्न
एक बूढी औरत
जो उठ कर चल नहीं सकती थी
घिसट घिसट कर
बार बार आती है संदूक के पास
संदूक से उछलती है कुछ पोटलियाँ
पोटलियों में भरा है तिलस्म
एक अजीब सी गंध देते कपड़े
घिसे हुए बर्तन
गंगा जल की शीशी
न पहचान में आने वाला
पुरी के जगन्नाथ का चित्र
कई बार खुलती बंद होती पोटलियाँ
किवाडों की दरारों से
चुपचाप झांकता एक बच्चासोचता है
इस ही संदूक में है
कहीं न कहीं अल्लाद्दीन का चिराग
खुल जा सिम --सिम
बंद हो जा सिम --
संदूक में लग गई है दीमक
चाट गई सारा तिलस्म
एक झूठी कहानी साबित हुआ
अल्लाद्दीन का चिराग
अब कोई बुढिया
घिसटती हुई नहीं आती संदूक तक
बचपन आज भी
संदूक के किसी कोने में दबा है
लेकिन अब संदूक पर पूरे पैर नहीं फैलते
शनिवार, 27 जून 2009
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dhnya kar diya bandhu !
जवाब देंहटाएंbahut hi umda kavita ...badhaai !