शनिवार, 19 सितंबर 2020

कविता : समय और दूरी

समय और दूरी
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    ( एक )
समय बहुत था
दूरियां कम

एक चौराहे से दूसरे चौराहे तक
पहुंचने में कितना समय लगता

सोचने भर की देरी थी
दूसरे ही पल वहाँ होते
तीसरे पल तीसरी जगह

कई बार तो आधी दूरी भी
पार नहीं करनी पड़ती थी
जिसके पास जाना होता
वह खुद ही आ रहा होता

बीच सड़क पर खड़े रहते
कितनी देर तक
आसपास से गुजर जाते
कितने ही लोग
कोई नहीं पूछता
कहाँ जाना है  हमें

कितना ही समय हो जाये
समय से पहले ही पहुंच जाते
जहाँ हमें पहुंचना होता
वहाँ हमारी कोई  प्रतीक्षा
नहीं कर रहा होता था
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      समय और दूरी
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           (  दो  )
कितनी भी दूर जाना होता
पैदल ही नाप लेते सड़क
चंद पल सुस्ताये बिना
लौट आते उतनी ही दूर
फिर भी थकान नहीं होती

जो मित्र हमें घर छोड़ने आता
उसे घर छोड़ने चले जाते
लौटते हुए राह में
कुछ याद आ जाता
उसे बताने चले जाते
घर पहुंचने की जल्दी नहीं होती
बीच में कोई मिल गया तो
उसके साथ चौराहे पर खड़े रह जाते

घर लौट कर फिर लौट जाते
कोई नहीं पूछता
कहाँ से आये हो 
कहाँ जा रहे हो

कितनी कम थी
सड़कों की लम्बाई
कई  चक्कर काटने के बाद भी
शाम होने से पहले घर लौट आते

पेड़ों पर चहचहा रही  होती चिड़ियाँ
और हम छत पर
पतंग उड़ा रहे होते 
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( प्रकाशित  " हिंदी जगत " नई दिल्ली
जुलाई - सितम्बर ' 2018  )

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