कविता
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जंगल की आग
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मैंने हर मौसम में
वस्त्रों का रंग बदल कर
परिवेश में व्याप्त अँधेरे को
मुट्ठी में बंद सूरज फेंका है
पर तटस्थता और
स्तिथिप्रग्यता ने
हर मौसम को बर्फ कर दिया
मेरे हर प्रयत्न को तुम्हारी
सुनहरी देह ने डस लिया
मेरी हथेलिओं पर
उग आये जंगली पौधे
हर मंच से तुमने
बहार आने का ऐलान किया
मैंने अपने ऊपर
झुक आये आसमान की
परवाह किये बिना
तुम्हारी मुस्कान पर
भरोसा कर लिया
एक स्वतंत्र देश के
सीलन भरे कटघरे में
उखड़ी उखड़ी साँसे लेता रहा
हर बार कुछ नारों से
तुम मुझे बहलाते रहे
अब जबकि मैं अपनी
हथेलिओं पर उग आये
जंगल में आग लगाना चाहता हूँ
तुम्हे अपने अस्तित्व की चिंता क्यों है
अच्छा हो की तुम
तालियाँ सुनने के आदी
तालियाँ बजाते हुए
अपनी जमात में शामिल हो जावो
तुम्हारा शासन पूरी
व्यवस्था के साथ जल जाने वाला है
मेरे जंगल में उठती हुयी आग से
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[[ प्रथम काव्य- संग्रह - 'शेष होते हुये '[१९८५] से ]
सोमवार, 26 जुलाई 2010
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''अब जबकि मैं अपनी
जवाब देंहटाएंहथेलिओं पर उग आये
जंगल में आग लगाना चाहता हूँ
तुम्हे अपने अस्तित्व की चिंता क्यों है
अच्छा हो की तुम
तालियाँ सुनने के आदी
तालियाँ बजाते हुए
अपनी जमात में शामिल हो जावो ''
अच्छा बिम्ब है .........
"तुम्हारी मुस्कान पर
जवाब देंहटाएंभरोसा कर लिया
एक स्वतंत्र देश के
सीलन भरे कटघरे में
उखड़ी उखड़ी साँसे लेता रहा"
वाह कुरते-टोपी वालों का अपने शब्दों से क्या सटीक चित्रण किया है !
मैं तो शुरू से ही आपकी कविताओं में एक ताजगी महसूस करती आई हूँ ,और ये गीली खुशबू आपकी हर रचना के साथ और गाढ़ी होती जाती है :)