कविता
----------
हवा को कैद करने की साजिश
-----------------------------------
वे हवा को कैद कर कहते है
मौसम का बयान करो
उस चरित्रहीन मौसम का
जिसको तमीज़ नहीं है
हरे और पीले पत्तों में अंतर की
उसकी बदतमीजी का गवाह है
ये सूखी टहनियों वाला पेड़
जवानी में ही बूढ़ा हो गया पेड़
जिसके पत्ते अभी
ठंडी हवा में झूम भी नहीं पाए थे
हवा को कैद करने की साजिश शुरू हो गई
इस पेड़ की जड़ों में
उन लोगों का खून है
जो शब्दों को हवा में विचरने की
आज़ादी चाहते थे
उन लोगों का ख्वाब था कि
इस पेड़ से निकल ने वाली
लोकतंत्र / स्वतंत्रता / समानता
कि टहनियां पूरे जंगल में फ़ैल जाएँगी
जिसके पत्तों की हवा से
शब्दों को नई जिन्दगी मिलेगी
लेकिन उनके उतराधिकारी
जंगल का दोहन कर
अपने शीशे के घरों की
सुरक्षा में व्यस्त है
हवा को कैद कर खुश है
वो नहीं जानते की
हवा कभी कैद नहीं हो सकती
ये हवा प्रचंड आंधी बन कर
उनके शीशे के घरों को चूर कर देगी
शीशे के करोड़ों टुकड़े खून के
कतरों में बदल जायेगें
खून का हर कतरा एक शब्द होगा
मंगलवार, 30 नवंबर 2010
शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010
कविता
------------
जरूरी कुछ भी नहीं है
--------------------------
जरूरी कुछ भी नहीं है
न तुम्हारा होना न मेरा होना
उन सब दस्तावेजों को
छुपा देने से क्या होगा
जिसे तुम षड़यंत्र की शुरुआत समझते हो
दोस्त वो वास्तव में अंत है
मेरा और तुम्हारा अंत
फिर तुम स्वयं समझदार हो
जानते हो जरूरी कुछ भी नहीं है
पर करना सब कुछ पड़ता है
एक अभ्यस्त सी जिन्दगी जीते रहना
और रोटी के साथ
कविता को पचाते रहना
तुम ही बताओ
क्या ये सब पूर्व नियोजित
षड़यंत्र नहीं है , तुम्हारा और
मेरा होना चाहे अनायास रहा होगा
पर दोस्त ,तुम्हारा और मेरा
जीना अनायास नहीं है
तुम क्यों किसी षड़यंत्र में
भागीदार बनते हो
संघर्ष क्यों नहीं करते
जो हो रहा है उसके विरूद्ध
जबकि जरूरी कुछ भी नहीं है
न तुम्हारा होना न मेरा होना
-----------------------------------------
[ प्रथम काव्य -संग्रह ' शेष होते हुए '[ १९८५ से]
------------
जरूरी कुछ भी नहीं है
--------------------------
जरूरी कुछ भी नहीं है
न तुम्हारा होना न मेरा होना
उन सब दस्तावेजों को
छुपा देने से क्या होगा
जिसे तुम षड़यंत्र की शुरुआत समझते हो
दोस्त वो वास्तव में अंत है
मेरा और तुम्हारा अंत
फिर तुम स्वयं समझदार हो
जानते हो जरूरी कुछ भी नहीं है
पर करना सब कुछ पड़ता है
एक अभ्यस्त सी जिन्दगी जीते रहना
और रोटी के साथ
कविता को पचाते रहना
तुम ही बताओ
क्या ये सब पूर्व नियोजित
षड़यंत्र नहीं है , तुम्हारा और
मेरा होना चाहे अनायास रहा होगा
पर दोस्त ,तुम्हारा और मेरा
जीना अनायास नहीं है
तुम क्यों किसी षड़यंत्र में
भागीदार बनते हो
संघर्ष क्यों नहीं करते
जो हो रहा है उसके विरूद्ध
जबकि जरूरी कुछ भी नहीं है
न तुम्हारा होना न मेरा होना
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[ प्रथम काव्य -संग्रह ' शेष होते हुए '[ १९८५ से]
सोमवार, 4 अक्टूबर 2010
कविता
-----------
पड़ाव
-------------
फिर लौट कर
उस ही गुलमोहर के
नीचे आ जाना
यात्रा का अंत नहीं
अंतहीन यात्रा का एक पड़ाव है
जब मैं थक जाता हूँ
दौड़ते हुए लोगो के पीछे
चीजों के पीछे
मैं फिर लौट कर
गुलमोहर के नीचे आ जाता हूँ
जहाँ से मैंने यात्रा शुरू की थी
ये सोच कर की पहले
मेरी दिशा सही नहीं थी
फिर सुस्ता कर
नई दिशा में चल देता हूँ
जिस दिन मेरी यात्रा
समाप्त हो जाएगी
उस दिन ये गुलमोहर
वहां आ जायेगा
जहाँ मेरी यात्रा का
अंतिम पड़ाव होगा
----------------------
-----------
पड़ाव
-------------
फिर लौट कर
उस ही गुलमोहर के
नीचे आ जाना
यात्रा का अंत नहीं
अंतहीन यात्रा का एक पड़ाव है
जब मैं थक जाता हूँ
दौड़ते हुए लोगो के पीछे
चीजों के पीछे
मैं फिर लौट कर
गुलमोहर के नीचे आ जाता हूँ
जहाँ से मैंने यात्रा शुरू की थी
ये सोच कर की पहले
मेरी दिशा सही नहीं थी
फिर सुस्ता कर
नई दिशा में चल देता हूँ
जिस दिन मेरी यात्रा
समाप्त हो जाएगी
उस दिन ये गुलमोहर
वहां आ जायेगा
जहाँ मेरी यात्रा का
अंतिम पड़ाव होगा
----------------------
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
कविता
-----------
अस्तित्व
--------------
जब पूरी जिन्दगी ही
एक समझौता बन जाती है
मुझे अपने किसी स्वप्न के
आत्महत्या कर लेने पर दुख नहीं होता
चेहरे पर बनावटी मुस्कान
लिए ही जब जीना है
जिन्दगी सिर्फ मौत का
इंतजार लगती है
ऐसे में किसी भी
रेशमी सम्बन्ध पर
तेजाब डाल देने पर
मुझे कोई शिकायत नहीं होती
अपने टूटे हुये अस्तित्व को
सहेज लेने का मोह
क्या अर्थ रखता है
जब टूटन ही जिन्दगी है
किसी जुड़ना,अलग होना
पर्यायवाची हो जाता है
मुझ से तमाम जुड़े हुये
अलग हुए लोगों को
मुझ से संबंधों के
संबोधनों के अर्थ
जला देने चाहिए
एक टूटे हुए अस्तित्व की
खोज अब बंद कर देनी चाहिए
----------------------------------
[प्रथम काव्य-संग्रह ['शेष होते हुये'-१९८५] से
-----------
अस्तित्व
--------------
जब पूरी जिन्दगी ही
एक समझौता बन जाती है
मुझे अपने किसी स्वप्न के
आत्महत्या कर लेने पर दुख नहीं होता
चेहरे पर बनावटी मुस्कान
लिए ही जब जीना है
जिन्दगी सिर्फ मौत का
इंतजार लगती है
ऐसे में किसी भी
रेशमी सम्बन्ध पर
तेजाब डाल देने पर
मुझे कोई शिकायत नहीं होती
अपने टूटे हुये अस्तित्व को
सहेज लेने का मोह
क्या अर्थ रखता है
जब टूटन ही जिन्दगी है
किसी जुड़ना,अलग होना
पर्यायवाची हो जाता है
मुझ से तमाम जुड़े हुये
अलग हुए लोगों को
मुझ से संबंधों के
संबोधनों के अर्थ
जला देने चाहिए
एक टूटे हुए अस्तित्व की
खोज अब बंद कर देनी चाहिए
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[प्रथम काव्य-संग्रह ['शेष होते हुये'-१९८५] से
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
कविता
-----------
भटकाव
------------
मैं न भी जानता तो क्या होता
जानता भी हूँ तो क्या हुआ
मुझे इस यात्रा में सम्मिलित होना था
और मैं हो गया
ये सब ऐसे ही हुआ जैसे
मेरा जन्म हो गया
ये बात और है कि
मैं किसी के साथ नहीं चल सका
इसलिए नहीं कि
सभी लोग बेईमान या भ्रष्ट थे
या कि लोगो ने ही मुझे छोड़ दिया
कारण जो भी रहा हो
इस लम्बी यात्रा में
मैं अकेला ही रह गया
बस अब तक कि यात्रा में
कुछ खरोंचे
जो मेरे जिस्म पर रह गई है
उनका दर्द ही मुझे रोके हुए है
नहीं तो क्या मै
यही पर खड़ा रहता
अब किसी को दोष देने से क्या फायदा
मैं ही उन लोगो के साथ हो गया था
जिनकी यात्रा एक बिंदु पर आकर रूक गई
और मैं अपना पथ भूल गया
मैं अब भी चल रहा हूँ
इस आशा में
मुझे अपनी राह कही तो मिलेगी
नहीं भी मिले तो क्या
मैं चल तो रहा ही हूँ
----------------------------
[ प्रथम काव्य संग्रह 'शेष होते हुए '[१९८५] से]
-----------
भटकाव
------------
मैं न भी जानता तो क्या होता
जानता भी हूँ तो क्या हुआ
मुझे इस यात्रा में सम्मिलित होना था
और मैं हो गया
ये सब ऐसे ही हुआ जैसे
मेरा जन्म हो गया
ये बात और है कि
मैं किसी के साथ नहीं चल सका
इसलिए नहीं कि
सभी लोग बेईमान या भ्रष्ट थे
या कि लोगो ने ही मुझे छोड़ दिया
कारण जो भी रहा हो
इस लम्बी यात्रा में
मैं अकेला ही रह गया
बस अब तक कि यात्रा में
कुछ खरोंचे
जो मेरे जिस्म पर रह गई है
उनका दर्द ही मुझे रोके हुए है
नहीं तो क्या मै
यही पर खड़ा रहता
अब किसी को दोष देने से क्या फायदा
मैं ही उन लोगो के साथ हो गया था
जिनकी यात्रा एक बिंदु पर आकर रूक गई
और मैं अपना पथ भूल गया
मैं अब भी चल रहा हूँ
इस आशा में
मुझे अपनी राह कही तो मिलेगी
नहीं भी मिले तो क्या
मैं चल तो रहा ही हूँ
----------------------------
[ प्रथम काव्य संग्रह 'शेष होते हुए '[१९८५] से]
सोमवार, 26 जुलाई 2010
कविता
--------
जंगल की आग
---------------------
मैंने हर मौसम में
वस्त्रों का रंग बदल कर
परिवेश में व्याप्त अँधेरे को
मुट्ठी में बंद सूरज फेंका है
पर तटस्थता और
स्तिथिप्रग्यता ने
हर मौसम को बर्फ कर दिया
मेरे हर प्रयत्न को तुम्हारी
सुनहरी देह ने डस लिया
मेरी हथेलिओं पर
उग आये जंगली पौधे
हर मंच से तुमने
बहार आने का ऐलान किया
मैंने अपने ऊपर
झुक आये आसमान की
परवाह किये बिना
तुम्हारी मुस्कान पर
भरोसा कर लिया
एक स्वतंत्र देश के
सीलन भरे कटघरे में
उखड़ी उखड़ी साँसे लेता रहा
हर बार कुछ नारों से
तुम मुझे बहलाते रहे
अब जबकि मैं अपनी
हथेलिओं पर उग आये
जंगल में आग लगाना चाहता हूँ
तुम्हे अपने अस्तित्व की चिंता क्यों है
अच्छा हो की तुम
तालियाँ सुनने के आदी
तालियाँ बजाते हुए
अपनी जमात में शामिल हो जावो
तुम्हारा शासन पूरी
व्यवस्था के साथ जल जाने वाला है
मेरे जंगल में उठती हुयी आग से
-----------------------------------------
[[ प्रथम काव्य- संग्रह - 'शेष होते हुये '[१९८५] से ]
--------
जंगल की आग
---------------------
मैंने हर मौसम में
वस्त्रों का रंग बदल कर
परिवेश में व्याप्त अँधेरे को
मुट्ठी में बंद सूरज फेंका है
पर तटस्थता और
स्तिथिप्रग्यता ने
हर मौसम को बर्फ कर दिया
मेरे हर प्रयत्न को तुम्हारी
सुनहरी देह ने डस लिया
मेरी हथेलिओं पर
उग आये जंगली पौधे
हर मंच से तुमने
बहार आने का ऐलान किया
मैंने अपने ऊपर
झुक आये आसमान की
परवाह किये बिना
तुम्हारी मुस्कान पर
भरोसा कर लिया
एक स्वतंत्र देश के
सीलन भरे कटघरे में
उखड़ी उखड़ी साँसे लेता रहा
हर बार कुछ नारों से
तुम मुझे बहलाते रहे
अब जबकि मैं अपनी
हथेलिओं पर उग आये
जंगल में आग लगाना चाहता हूँ
तुम्हे अपने अस्तित्व की चिंता क्यों है
अच्छा हो की तुम
तालियाँ सुनने के आदी
तालियाँ बजाते हुए
अपनी जमात में शामिल हो जावो
तुम्हारा शासन पूरी
व्यवस्था के साथ जल जाने वाला है
मेरे जंगल में उठती हुयी आग से
-----------------------------------------
[[ प्रथम काव्य- संग्रह - 'शेष होते हुये '[१९८५] से ]
शनिवार, 10 जुलाई 2010
kavita
तीन कवितायेँ
-----------------
[एक]
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
---------------------------
हम किसी को
कुछ भी कह सकते है
ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है
कोई हमे कुछ भी कह दे
ये मानहानि है हमारी
[दो]
सहिष्णुता
------------
कोई हमारी प्रशंसा करे
चाहे झूठा ही गुणगान करे
इतना तो सहन सकते है
कोई आलोचना करे
हम चुप बैठ जाएँ
इतने भी सहिष्णु नहीं है हम
[तीन]
स्वाभिमानी
-----------------
जहाँ से हमें
कुछ प्राप्त नहीं हो रहा
उनकी क्यों सुने
आखिर स्वाभिमानी है हम
जहाँ से हमे
कुछ प्राप्त हो रहा है
उनकी गाली भी सुन लेते है
ये विनम्रता है हमारी
--------------------
-----------------
[एक]
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
---------------------------
हम किसी को
कुछ भी कह सकते है
ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है
कोई हमे कुछ भी कह दे
ये मानहानि है हमारी
[दो]
सहिष्णुता
------------
कोई हमारी प्रशंसा करे
चाहे झूठा ही गुणगान करे
इतना तो सहन सकते है
कोई आलोचना करे
हम चुप बैठ जाएँ
इतने भी सहिष्णु नहीं है हम
[तीन]
स्वाभिमानी
-----------------
जहाँ से हमें
कुछ प्राप्त नहीं हो रहा
उनकी क्यों सुने
आखिर स्वाभिमानी है हम
जहाँ से हमे
कुछ प्राप्त हो रहा है
उनकी गाली भी सुन लेते है
ये विनम्रता है हमारी
--------------------
शुक्रवार, 11 जून 2010
कविता
--------
मैं अभिमन्यु नहीं हूँ
------------------------
मैं अभिमन्यु नहीं हूँ
फिर भी चक्रव्यूह में फंस गया हूँ
जब मैं गर्भ में था
इस व्यूह की रचना होरही थी
मैं महाभारत का पात्र नहीं हूँ
स्वतंत्र भारत का नागरिक हूँ
मेरा बाप अर्जुन नहीं था
एक परतंत्र नागरिक था
मैंने आपनी आँखे
एक सुखद स्वप्न में खोली थी
मेरे चेहरे पर घाव
हथियारों के नहीं
उन नारों के है
जो हर मौसम में फेकें गए है
यह शरीर, ढांचा
रोटी खाने से नहीं हुआ है
यह सब तो
स्वादिष्ट आश्वासनों के कारण है
मैं विद्रोह नहीं करूँगा
मैं एक शिक्षित नागरिक हूँ
मैंने अंग्रेजी में हिंदी पढ़ी है
मेरा देश भारत दैट इज इंडिया है
मैं भूख से नहीं नहीं मर सकता
भारत एक कृषि प्रधान देश है
मैं बेरोजगार भी नहीं हूँ
भारत एक क्लर्क प्रधान देश है
मुझे समानता का अधिकार है
समानता अवसर प्रदान करती है
भारत एक अवसर प्रदान देश है
जिस व्यूह में मैं फंसा हूँ
उसे तोडना मुझे नहीं आता
मेरी मृत्यु अभिमन्यु जैसी ही होगी
किन्तु इतिहास में मेरा नाम नहीं होगा
क्योकि मैं अभिमन्यु नहीं हूँ
--------
मैं अभिमन्यु नहीं हूँ
------------------------
मैं अभिमन्यु नहीं हूँ
फिर भी चक्रव्यूह में फंस गया हूँ
जब मैं गर्भ में था
इस व्यूह की रचना होरही थी
मैं महाभारत का पात्र नहीं हूँ
स्वतंत्र भारत का नागरिक हूँ
मेरा बाप अर्जुन नहीं था
एक परतंत्र नागरिक था
मैंने आपनी आँखे
एक सुखद स्वप्न में खोली थी
मेरे चेहरे पर घाव
हथियारों के नहीं
उन नारों के है
जो हर मौसम में फेकें गए है
यह शरीर, ढांचा
रोटी खाने से नहीं हुआ है
यह सब तो
स्वादिष्ट आश्वासनों के कारण है
मैं विद्रोह नहीं करूँगा
मैं एक शिक्षित नागरिक हूँ
मैंने अंग्रेजी में हिंदी पढ़ी है
मेरा देश भारत दैट इज इंडिया है
मैं भूख से नहीं नहीं मर सकता
भारत एक कृषि प्रधान देश है
मैं बेरोजगार भी नहीं हूँ
भारत एक क्लर्क प्रधान देश है
मुझे समानता का अधिकार है
समानता अवसर प्रदान करती है
भारत एक अवसर प्रदान देश है
जिस व्यूह में मैं फंसा हूँ
उसे तोडना मुझे नहीं आता
मेरी मृत्यु अभिमन्यु जैसी ही होगी
किन्तु इतिहास में मेरा नाम नहीं होगा
क्योकि मैं अभिमन्यु नहीं हूँ
सोमवार, 31 मई 2010
kavita
कविता
----------
युवा कवि
-----------
युवा कवि होने के लिए
लबादे की तरह विद्रोह ओढ़े रहना चाहिए
सुविधा भोगते हुए भी
असंतुष्ट और नाराज़ दिखते रहना चाहिए
हर समय होंठो पर टिकाये रखनी चाहिए किंग साइज़ सिगरेट
सहमत नहीं होना चाहिए किसी भी मुद्दे पर
शुरू कर देनी चाहिए बहस
हर शाम शराब पीते हुए
अपने से वरिष्ठ कवियों को गाली देते रहना चाहिए
युवा कवियों को अक्सर
देर से पहुंचना चाहिए गोष्ठियों में
पीछे की कुर्सियों पर बैठ कर
फब्तियां कसते रहना चाहिए
अपनी बारी आने पर
अनिच्छा दर्शाते हुए
पढ़ डालनी चाहिए आठ दस कवितायेँ
कविता लिखने से कुछ नहीं होता
कविता लिखने से पुरस्कार भी नहीं मिलता
युवा कवियों को कविता से इत्तर भी कुछ करते रहना चाहिए
मसलन बताते रहना चाहिए
अपनी नई प्रेमिकाओं के नाम
नशे में खींच लेना चाहिए
आलोचक के कमीज़ का कालर
चर्चा में कविता नहीं कवियों को रहना चाहिए
बहुत कठिन समय है ये
साहित्य के केंद्र में कविता नहीं
कविता के केंद्र कवि है इन दिनों
-----------------------------------------
----------
युवा कवि
-----------
युवा कवि होने के लिए
लबादे की तरह विद्रोह ओढ़े रहना चाहिए
सुविधा भोगते हुए भी
असंतुष्ट और नाराज़ दिखते रहना चाहिए
हर समय होंठो पर टिकाये रखनी चाहिए किंग साइज़ सिगरेट
सहमत नहीं होना चाहिए किसी भी मुद्दे पर
शुरू कर देनी चाहिए बहस
हर शाम शराब पीते हुए
अपने से वरिष्ठ कवियों को गाली देते रहना चाहिए
युवा कवियों को अक्सर
देर से पहुंचना चाहिए गोष्ठियों में
पीछे की कुर्सियों पर बैठ कर
फब्तियां कसते रहना चाहिए
अपनी बारी आने पर
अनिच्छा दर्शाते हुए
पढ़ डालनी चाहिए आठ दस कवितायेँ
कविता लिखने से कुछ नहीं होता
कविता लिखने से पुरस्कार भी नहीं मिलता
युवा कवियों को कविता से इत्तर भी कुछ करते रहना चाहिए
मसलन बताते रहना चाहिए
अपनी नई प्रेमिकाओं के नाम
नशे में खींच लेना चाहिए
आलोचक के कमीज़ का कालर
चर्चा में कविता नहीं कवियों को रहना चाहिए
बहुत कठिन समय है ये
साहित्य के केंद्र में कविता नहीं
कविता के केंद्र कवि है इन दिनों
-----------------------------------------
गुरुवार, 20 मई 2010
कविता
------------
मेरा हाथ
-------------
उठता है मेरा हाथ
अभिवादन के लिए
अभिषेक के लिए
शुभ कामना के लिए
उठता है मेरा हाथ
दुआ मांगने के लिए
अन्याय के विरूद्ध
आवाज उठाने के लिए
शोषण के विरूद्ध
हक मांगने के लिए
लेकिन नहीं उठता मेरा हाथ
पीठ में छुरा घोंपने के लिए
धर्मध्वजा लहराने के लिए
रथ में जूते घोड़ों को
चाबुक मारने के लिए
----------------------------------
सोमवार, 10 मई 2010
कविता
---------
मेरी माँ का स्वप्न
------------------
हर माँ का एक स्वप्न होता है
मेरी माँ का भी एक स्वप्न था
हर बेटा अपनी माँ की
आँख का तारा होता है
कैसा भी हो
भविष्य का सहारा होता है
मैं भी होनहार बीरबान था
मेरे भी चिकने पात थे
मेरी माँ का स्वप्न था
मैं ओहदेदार बनूँगा
समाज में प्रतिष्ठित
इज्जतदार बनूँगा
एक बंगले और कार का
हकदार बनूँगा
माँ का ये स्वप्न
न जाने कब मेरा स्वप्न बन गया
मैं बचपन से ही
एक अलग दुनिया में खो गया
मुझे न क्यों
भाग्यशाली होने का भ्रम हो गया
और जब माँ की साधना से
ओहदा पाने लायक हो गया
ओहदा ही न जाने कहाँ खो गया
कुछ दिन जूते घिस कर
भ्रम से निकल कर
किसी ओहदेदार का अहलकार हो गया
मेरा माँ का विश्वाश टूट गया
उसका ईश्वर रूठ गया
एक दिन माँ ने
आँखे बंद करली
माँ का स्वप्न भी
बंद आँखों में मर गया
मैं खुश था
माँ के मरने से नहीं
स्वप्न के मर जाने से
फिर मुझे लेकर
किसी ने स्वप्न नहीं देखा
कौन देखता
मैंने भी नहीं देखा
------------------------
---------
मेरी माँ का स्वप्न
------------------
हर माँ का एक स्वप्न होता है
मेरी माँ का भी एक स्वप्न था
हर बेटा अपनी माँ की
आँख का तारा होता है
कैसा भी हो
भविष्य का सहारा होता है
मैं भी होनहार बीरबान था
मेरे भी चिकने पात थे
मेरी माँ का स्वप्न था
मैं ओहदेदार बनूँगा
समाज में प्रतिष्ठित
इज्जतदार बनूँगा
एक बंगले और कार का
हकदार बनूँगा
माँ का ये स्वप्न
न जाने कब मेरा स्वप्न बन गया
मैं बचपन से ही
एक अलग दुनिया में खो गया
मुझे न क्यों
भाग्यशाली होने का भ्रम हो गया
और जब माँ की साधना से
ओहदा पाने लायक हो गया
ओहदा ही न जाने कहाँ खो गया
कुछ दिन जूते घिस कर
भ्रम से निकल कर
किसी ओहदेदार का अहलकार हो गया
मेरा माँ का विश्वाश टूट गया
उसका ईश्वर रूठ गया
एक दिन माँ ने
आँखे बंद करली
माँ का स्वप्न भी
बंद आँखों में मर गया
मैं खुश था
माँ के मरने से नहीं
स्वप्न के मर जाने से
फिर मुझे लेकर
किसी ने स्वप्न नहीं देखा
कौन देखता
मैंने भी नहीं देखा
------------------------
शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010
कविता
---------
कला में गणित
-----------------
मैं गणित में बहुत कमजोर था
यदि मेरी गणित अच्छी होती
शायद मैं इन्जीनीयर होता
गणित में अनुतीर्ण होते रहने पर
मैं कला वर्ग में आगया
विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में
उतीर्ण होता चला गया
मुझे मास्टर आफ आर्ट्स की
उपाधि भी मिल गई
पर गणित में कमजोर ही रहा
बीज गणित एवं रेखा गणित से
मैंने छुटकारा पा लिया पर
जीवन के गणित में फंस गया
संबंधों में गणित
मित्रों में गणित
साहित्य में गणित
कला में गणित
सम्मान में गणित
अपमान में गणित
पुरस्कार में गणित
तिरस्कार में गणित
मेरा सोचना गलत था
गणित अच्छी होने पर
इन्जीनीयर ही बना जा सकता है
सच तो ये है कि
कुछ भी बनने के लिए
गणित अच्छी होना जरूरी है.
-------------------------------
---------
कला में गणित
-----------------
मैं गणित में बहुत कमजोर था
यदि मेरी गणित अच्छी होती
शायद मैं इन्जीनीयर होता
गणित में अनुतीर्ण होते रहने पर
मैं कला वर्ग में आगया
विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में
उतीर्ण होता चला गया
मुझे मास्टर आफ आर्ट्स की
उपाधि भी मिल गई
पर गणित में कमजोर ही रहा
बीज गणित एवं रेखा गणित से
मैंने छुटकारा पा लिया पर
जीवन के गणित में फंस गया
संबंधों में गणित
मित्रों में गणित
साहित्य में गणित
कला में गणित
सम्मान में गणित
अपमान में गणित
पुरस्कार में गणित
तिरस्कार में गणित
मेरा सोचना गलत था
गणित अच्छी होने पर
इन्जीनीयर ही बना जा सकता है
सच तो ये है कि
कुछ भी बनने के लिए
गणित अच्छी होना जरूरी है.
-------------------------------
शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010
कविता
----------
कविता से कोई नहीं डरता
------------------------------
किसी काम के नहीं होते कवि
बिजली का उड़ जाए फ्यूज तो
फ्यूज बांधना नहीं आता
नल टपकता हो तो टपकता रहे
चाहे कितने ही कला प्रेमी हों
एक तस्वीर तरीके से
नहीं लगा सकते कमरे में
पेड़ पौधों और फूलों के बारे में
खूब बाते करते है
छांट नहीं सकते
अच्छी तुरई और टिंडे
जब देखो उठा लाते है
गले हुए केले और आम
वे नमक पर लिखते है कविता
दाल में कम हों नमक
तो उन्हें महसूस नहीं होता
वे रोटी पर लिखते है कविता
रोटी कमाना उन्हें नहीं आता
वे प्रेम पर लिखते है कविता
प्रेम जताना उन्हें नहीं आता
कविता लिखते है
अपने आसपास के माहौल पर
प्रकाशित होते है सूदूर
अपने घर में भी
उन्हें कोई नहीं मानता
अपने शहर में
उन्हें कोई नहीं जानता
कवियों को तो
होना चाहिए संत-फकीर
होना चाहिए निराला-कबीर
------------------------------
----------
कविता से कोई नहीं डरता
------------------------------
किसी काम के नहीं होते कवि
बिजली का उड़ जाए फ्यूज तो
फ्यूज बांधना नहीं आता
नल टपकता हो तो टपकता रहे
चाहे कितने ही कला प्रेमी हों
एक तस्वीर तरीके से
नहीं लगा सकते कमरे में
पेड़ पौधों और फूलों के बारे में
खूब बाते करते है
छांट नहीं सकते
अच्छी तुरई और टिंडे
जब देखो उठा लाते है
गले हुए केले और आम
वे नमक पर लिखते है कविता
दाल में कम हों नमक
तो उन्हें महसूस नहीं होता
वे रोटी पर लिखते है कविता
रोटी कमाना उन्हें नहीं आता
वे प्रेम पर लिखते है कविता
प्रेम जताना उन्हें नहीं आता
कविता लिखते है
अपने आसपास के माहौल पर
प्रकाशित होते है सूदूर
अपने घर में भी
उन्हें कोई नहीं मानता
अपने शहर में
उन्हें कोई नहीं जानता
कवियों को तो
होना चाहिए संत-फकीर
होना चाहिए निराला-कबीर
------------------------------
कविता
----------
कुर्सी कवि
------------
अपने से भाग कर
अपनी छाया से टकरा कर
डर जाते है कुर्सी कवि
सुंदर लेख की तरह
सुन्दर कवितायेँ लिखने वाले कवि
विदेश से आयातित
सुन्दर चश्मा लगा होने के बावजूद
आकाश साफ़ दिखाई नहीं देता है
आकाश में उड़ने वाली सारी पतंगें
दिखती है एकसी
कला केन्द्रों में बंद
कला की चिंता में मूटियाते
कला केन्द्रों से निकल कर
दूर दर्शन और आकाशवाणी केन्द्रों तक
जाते है कुर्सी कवि
जंहाँ कुर्सियां
करती है उनका अभिवादन
अपठनीय , निस्पंद और अमूर्त
कविताओं का रोना रोने वाले संपादक
छापते है उनकी कवितायेँ
कुर्सी कवि डरते है पतंगबाजों से
या फिर अपनी छाया से
------------------------------------
----------
कुर्सी कवि
------------
अपने से भाग कर
अपनी छाया से टकरा कर
डर जाते है कुर्सी कवि
सुंदर लेख की तरह
सुन्दर कवितायेँ लिखने वाले कवि
विदेश से आयातित
सुन्दर चश्मा लगा होने के बावजूद
आकाश साफ़ दिखाई नहीं देता है
आकाश में उड़ने वाली सारी पतंगें
दिखती है एकसी
कला केन्द्रों में बंद
कला की चिंता में मूटियाते
कला केन्द्रों से निकल कर
दूर दर्शन और आकाशवाणी केन्द्रों तक
जाते है कुर्सी कवि
जंहाँ कुर्सियां
करती है उनका अभिवादन
अपठनीय , निस्पंद और अमूर्त
कविताओं का रोना रोने वाले संपादक
छापते है उनकी कवितायेँ
कुर्सी कवि डरते है पतंगबाजों से
या फिर अपनी छाया से
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शुक्रवार, 19 मार्च 2010
कविता
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सोने की चिड़िया
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दूध के धुले हुए तो हम
तब भी नहीं थे
दूध में पानी मिलाना तो
तब से ही शुरू कर दिया था
जब दूध की कमी नहीं थी
उन्ही दिनों आटे में नमक
कहावत को समाज में स्वीकृति मिल गई थी
देशी घी में डालडा घुल मिल चुका था
मिर्च में लाल रंग और
धनिये में घोड़े की लीद के
बारे में हम सुन चुके थे
लेकिन इस सब के बावजूद
एक उम्मीद बची थी कि
सब ठीक हो जायेगा
ये देश फिर से
सोने कि चिड़िया हो जायेगा
तब तक मिलावट करने वाला बनिया
तस्करी करने वाला व्यापारी
जिस्म का सौदा करने वाला दलाल
भेदभाव फ़ैलाने वाला धर्म गुरु
हथियारों का सोदा करने वाला तांत्रिक
राजनेता से उजाले में नहीं मिलता था
समाचार पत्रों में
चित्र साथ साथ नहीं छपते थे
उमीद थी कि कुछ बेईमान लोग
जल्दी ही बेनकाब कर दिए जायेगे
युवा तुर्क संसद में दहाड़ रहे थे
गरीबी हटाओ और समाजवाद लाओ के
नारो की गूँज से पूंजीवाद देश में
इस तरह कांप रहा था
जैसे एक सर्वहारा ठण्ड की रातों में
आज भी कांप रहा है
उम्मीद रंग लायी और खूब लायी
चंद शब्द , शब्द कोश से बाहर कर दिए गए
चंद लोग पागल करार कर दिए गए
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बुलाया गया
देश में खुलापन लाया गया
सब कुछ ठीक हो गया
देश फिर से सोने की चिडिया हो गया
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सोने की चिड़िया
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दूध के धुले हुए तो हम
तब भी नहीं थे
दूध में पानी मिलाना तो
तब से ही शुरू कर दिया था
जब दूध की कमी नहीं थी
उन्ही दिनों आटे में नमक
कहावत को समाज में स्वीकृति मिल गई थी
देशी घी में डालडा घुल मिल चुका था
मिर्च में लाल रंग और
धनिये में घोड़े की लीद के
बारे में हम सुन चुके थे
लेकिन इस सब के बावजूद
एक उम्मीद बची थी कि
सब ठीक हो जायेगा
ये देश फिर से
सोने कि चिड़िया हो जायेगा
तब तक मिलावट करने वाला बनिया
तस्करी करने वाला व्यापारी
जिस्म का सौदा करने वाला दलाल
भेदभाव फ़ैलाने वाला धर्म गुरु
हथियारों का सोदा करने वाला तांत्रिक
राजनेता से उजाले में नहीं मिलता था
समाचार पत्रों में
चित्र साथ साथ नहीं छपते थे
उमीद थी कि कुछ बेईमान लोग
जल्दी ही बेनकाब कर दिए जायेगे
युवा तुर्क संसद में दहाड़ रहे थे
गरीबी हटाओ और समाजवाद लाओ के
नारो की गूँज से पूंजीवाद देश में
इस तरह कांप रहा था
जैसे एक सर्वहारा ठण्ड की रातों में
आज भी कांप रहा है
उम्मीद रंग लायी और खूब लायी
चंद शब्द , शब्द कोश से बाहर कर दिए गए
चंद लोग पागल करार कर दिए गए
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बुलाया गया
देश में खुलापन लाया गया
सब कुछ ठीक हो गया
देश फिर से सोने की चिडिया हो गया
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शनिवार, 27 फ़रवरी 2010
कविता
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अक्सर हम भूल जाते है
-----------------------------
अक्सर हम भूल जाते हैं चाबियाँ
जो किसी खजाने की नहीं होती
अक्सर रह जाता है हमारा कलम
किसी अनजान के पास
जिससे वह नहीं लिखेगा कविता
अक्सर हम भूल जाते हैं
उन मित्रों के टेलीफ़ोन नंबर
जिनसे हम रोज मिलते है
डायरी में मिलते है
उन के टेलीफोन नंबर
जिन्हें हम कभी फ़ोन नहीं करते
अक्सर हम भूल जाते हैं
रिश्तेदारों के बदले हुए पते
याद रहती है रिश्तेदारी
अक्सर याद नहीं रहते
पुरानी अभिनेत्रियों के नाम
याद रहते है उनके चेहरे
अक्सर हम भूल जाते हैं
पत्नियों द्वारा बताये काम
याद रहती है बच्चों की फरमाइश
हम किसी दिन नहीं भूलते
सुबह दफ्तर जाना
शाम को बुद्धुओं की तरह
घर लौट आना
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अक्सर हम भूल जाते है
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अक्सर हम भूल जाते हैं चाबियाँ
जो किसी खजाने की नहीं होती
अक्सर रह जाता है हमारा कलम
किसी अनजान के पास
जिससे वह नहीं लिखेगा कविता
अक्सर हम भूल जाते हैं
उन मित्रों के टेलीफ़ोन नंबर
जिनसे हम रोज मिलते है
डायरी में मिलते है
उन के टेलीफोन नंबर
जिन्हें हम कभी फ़ोन नहीं करते
अक्सर हम भूल जाते हैं
रिश्तेदारों के बदले हुए पते
याद रहती है रिश्तेदारी
अक्सर याद नहीं रहते
पुरानी अभिनेत्रियों के नाम
याद रहते है उनके चेहरे
अक्सर हम भूल जाते हैं
पत्नियों द्वारा बताये काम
याद रहती है बच्चों की फरमाइश
हम किसी दिन नहीं भूलते
सुबह दफ्तर जाना
शाम को बुद्धुओं की तरह
घर लौट आना
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सोमवार, 8 फ़रवरी 2010
कविता
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बाथ रूम
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उन्होने बनवाया एक आलीशान मकान
लाखों में खरीदी थी जमीन
करोड़ों में कमाया था काला धन
राजधानी से आया वास्तुकार
दूर दराज से आये पत्थर
गलियारे में लगा था सफ़ेद संगमरमर
मकान में सबसे शानदार
और देखने लायक था
उनका बाथ रूम
जगमगाता उजला
चांदनी से नहाया फर्श
जिस पर ठिठक जाएँ पैर
कहते है काला धन
खपाया जाता है मकान बनवाने में
या विवाह समारोह के शामियाने में
वे हर बड़े आदमी की तरह
अक्सर रहते थे बाथरूम में
एक दिन समाचार मिला
एक दम चित गिरे थे
फिर नहीं उठ पाए बाथ रूम से
बचपन में कहानियों में पढ़ा था
अक्सर जादूगर की जान किसी
पुराने किले में बंद
तोते में हुआ करती थी
कहते है उनकी जान बाथ रूम में थी.
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बाथ रूम
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उन्होने बनवाया एक आलीशान मकान
लाखों में खरीदी थी जमीन
करोड़ों में कमाया था काला धन
राजधानी से आया वास्तुकार
दूर दराज से आये पत्थर
गलियारे में लगा था सफ़ेद संगमरमर
मकान में सबसे शानदार
और देखने लायक था
उनका बाथ रूम
जगमगाता उजला
चांदनी से नहाया फर्श
जिस पर ठिठक जाएँ पैर
कहते है काला धन
खपाया जाता है मकान बनवाने में
या विवाह समारोह के शामियाने में
वे हर बड़े आदमी की तरह
अक्सर रहते थे बाथरूम में
एक दिन समाचार मिला
एक दम चित गिरे थे
फिर नहीं उठ पाए बाथ रूम से
बचपन में कहानियों में पढ़ा था
अक्सर जादूगर की जान किसी
पुराने किले में बंद
तोते में हुआ करती थी
कहते है उनकी जान बाथ रूम में थी.
मंगलवार, 12 जनवरी 2010
www.govind-mathur.blogspot.com
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कविता
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नीली धारिओं वाला स्वेटर
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कैसी भी रही हो ठण्ड
ठिठुरा देने वाली या गुलाबी
एक ही स्वेटर था मेरे पास
नीली धारिओं वाला
बहिन के स्वेटर बुनने से पहले
किसी की उतरी हुई जाकेट
पहन ता था मैं
जाकेट में गर्माहट थी
पर जाकेट पहन कर
ख़ुशी नहीं मिलती थी मुझे
एक उदासी छा जाती थी
मेरे चेहरे पर
बहिन मेरे चेहरे पर छाई
उदासी पढ़ कर
खुद भी उदास हो जाया करती थी
बहिन ने थोड़े थोड़े पैसे बचा कर
ख़रीदे सफ़ेद नीले ऊन के गोले
एक सहेली से मांग लाई सलाई
किसी पत्रिका के बुनाई विशेषांक से
सीखी बुनाई
दो उल्टे एक सीधा
एक उल्टा दो सीधे डाले फंदे
कई दिनों तक नापती रही
मेरा गला और लम्बाई
गिनती रही फंदे
बदलती रही सलाई
ठिठुराती ठण्ड आने से पहले
एक दिन बहिन ने
पहना दिया मुझे नया स्वेटर
बहिन की ऊंगलियों की ऊष्मा
समां गई थी स्वेटर में
मेरे चेहरे पर आई चमक
देख कर खुश थी बहिन
मेरा स्वेटर देख कर
लड़कियां पूछती थी
कलात्मक बुनाई के बारे में
बहिन के ससुराल जाने बाद भी
कई वर्षों तक पहनता रहा मैं
नीली धारिओं वाला स्वेटर
उस स्वेटर जैसी ऊष्मा
फिर किसी स्वेटर में नहीं मिली
उस स्वेटर की स्मृति में
आज भी ठण्ड नहीं लगती मुझे
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कविता
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नीली धारिओं वाला स्वेटर
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कैसी भी रही हो ठण्ड
ठिठुरा देने वाली या गुलाबी
एक ही स्वेटर था मेरे पास
नीली धारिओं वाला
बहिन के स्वेटर बुनने से पहले
किसी की उतरी हुई जाकेट
पहन ता था मैं
जाकेट में गर्माहट थी
पर जाकेट पहन कर
ख़ुशी नहीं मिलती थी मुझे
एक उदासी छा जाती थी
मेरे चेहरे पर
बहिन मेरे चेहरे पर छाई
उदासी पढ़ कर
खुद भी उदास हो जाया करती थी
बहिन ने थोड़े थोड़े पैसे बचा कर
ख़रीदे सफ़ेद नीले ऊन के गोले
एक सहेली से मांग लाई सलाई
किसी पत्रिका के बुनाई विशेषांक से
सीखी बुनाई
दो उल्टे एक सीधा
एक उल्टा दो सीधे डाले फंदे
कई दिनों तक नापती रही
मेरा गला और लम्बाई
गिनती रही फंदे
बदलती रही सलाई
ठिठुराती ठण्ड आने से पहले
एक दिन बहिन ने
पहना दिया मुझे नया स्वेटर
बहिन की ऊंगलियों की ऊष्मा
समां गई थी स्वेटर में
मेरे चेहरे पर आई चमक
देख कर खुश थी बहिन
मेरा स्वेटर देख कर
लड़कियां पूछती थी
कलात्मक बुनाई के बारे में
बहिन के ससुराल जाने बाद भी
कई वर्षों तक पहनता रहा मैं
नीली धारिओं वाला स्वेटर
उस स्वेटर जैसी ऊष्मा
फिर किसी स्वेटर में नहीं मिली
उस स्वेटर की स्मृति में
आज भी ठण्ड नहीं लगती मुझे
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