कविता
-----------
भटकाव
------------
मैं न भी जानता तो क्या होता
जानता भी हूँ तो क्या हुआ
मुझे इस यात्रा में सम्मिलित होना था
और मैं हो गया
ये सब ऐसे ही हुआ जैसे
मेरा जन्म हो गया
ये बात और है कि
मैं किसी के साथ नहीं चल सका
इसलिए नहीं कि
सभी लोग बेईमान या भ्रष्ट थे
या कि लोगो ने ही मुझे छोड़ दिया
कारण जो भी रहा हो
इस लम्बी यात्रा में
मैं अकेला ही रह गया
बस अब तक कि यात्रा में
कुछ खरोंचे
जो मेरे जिस्म पर रह गई है
उनका दर्द ही मुझे रोके हुए है
नहीं तो क्या मै
यही पर खड़ा रहता
अब किसी को दोष देने से क्या फायदा
मैं ही उन लोगो के साथ हो गया था
जिनकी यात्रा एक बिंदु पर आकर रूक गई
और मैं अपना पथ भूल गया
मैं अब भी चल रहा हूँ
इस आशा में
मुझे अपनी राह कही तो मिलेगी
नहीं भी मिले तो क्या
मैं चल तो रहा ही हूँ
----------------------------
[ प्रथम काव्य संग्रह 'शेष होते हुए '[१९८५] से]
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें