कविता
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अस्तित्व
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जब पूरी जिन्दगी ही
एक समझौता बन जाती है
मुझे अपने किसी स्वप्न के
आत्महत्या कर लेने पर दुख नहीं होता
चेहरे पर बनावटी मुस्कान
लिए ही जब जीना है
जिन्दगी सिर्फ मौत का
इंतजार लगती है
ऐसे में किसी भी
रेशमी सम्बन्ध पर
तेजाब डाल देने पर
मुझे कोई शिकायत नहीं होती
अपने टूटे हुये अस्तित्व को
सहेज लेने का मोह
क्या अर्थ रखता है
जब टूटन ही जिन्दगी है
किसी जुड़ना,अलग होना
पर्यायवाची हो जाता है
मुझ से तमाम जुड़े हुये
अलग हुए लोगों को
मुझ से संबंधों के
संबोधनों के अर्थ
जला देने चाहिए
एक टूटे हुए अस्तित्व की
खोज अब बंद कर देनी चाहिए
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[प्रथम काव्य-संग्रह ['शेष होते हुये'-१९८५] से
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
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