कविता
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कुर्सी कवि
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अपने से भाग कर
अपनी छाया से टकरा कर
डर जाते है कुर्सी कवि
सुंदर लेख की तरह
सुन्दर कवितायेँ लिखने वाले कवि
विदेश से आयातित
सुन्दर चश्मा लगा होने के बावजूद
आकाश साफ़ दिखाई नहीं देता है
आकाश में उड़ने वाली सारी पतंगें
दिखती है एकसी
कला केन्द्रों में बंद
कला की चिंता में मूटियाते
कला केन्द्रों से निकल कर
दूर दर्शन और आकाशवाणी केन्द्रों तक
जाते है कुर्सी कवि
जंहाँ कुर्सियां
करती है उनका अभिवादन
अपठनीय , निस्पंद और अमूर्त
कविताओं का रोना रोने वाले संपादक
छापते है उनकी कवितायेँ
कुर्सी कवि डरते है पतंगबाजों से
या फिर अपनी छाया से
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शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010
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