कविता
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शून्य में
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कई बार शून्य में
चला जाता हूँ मैं
एक बेहद लंबी
सैकड़ों मील दूर तक फैली सुरंग
जिसमें न हवा है न ही जल
कहीं कोई प्रकाश छिद्र भी नहीं
निस्तब्ध निर्वाक अपने क़दमों की
पदचाप भी सुनाई नहीं देती
जहाँ न शब्द है
न ही शब्दों के अर्थ
न ही शब्दों के बीच छूटी खाली जगह
एक निराकार
ध्यानस्थ भारहीन
रूई के फाहे सा
तैरता रहता हूँ शून्य में
किसी गहन अँधेरे में
फिर लौटना नहीं चाहता
कोलाहल में
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( काव्य -- संग्रह " बची हुई हंसी " से एक कविता )
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शून्य में
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कई बार शून्य में
चला जाता हूँ मैं
एक बेहद लंबी
सैकड़ों मील दूर तक फैली सुरंग
जिसमें न हवा है न ही जल
कहीं कोई प्रकाश छिद्र भी नहीं
निस्तब्ध निर्वाक अपने क़दमों की
पदचाप भी सुनाई नहीं देती
जहाँ न शब्द है
न ही शब्दों के अर्थ
न ही शब्दों के बीच छूटी खाली जगह
एक निराकार
ध्यानस्थ भारहीन
रूई के फाहे सा
तैरता रहता हूँ शून्य में
किसी गहन अँधेरे में
फिर लौटना नहीं चाहता
कोलाहल में
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( काव्य -- संग्रह " बची हुई हंसी " से एक कविता )
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