कविता
अच्छे दिन
मेरे वो बुरे दिन
जो गुजरे दोस्तों के साथ
अच्छे दिन लगते है
किसी भी समय
कोई भी दोस्त
आ टपकता घर
अनचाहे ही मिल जाता राह में
दिख जाता चौराहे पर खड़ा हुआ
कई बार बातों बातों में
कट जाता पूरा दिन
घर से भूखे पेट
निकले हों या भर पेट
इतनी भूख हमेशा रहती
किसी दोस्त घर बैठे हों
दोस्त के साथ खा लिया करते
सड़क पर रहे हों तो
किसी प्याऊ पर
ठंडा पानी पी कर
ठहाके लगा लिया करते
गर किसी की भी
जेब में होती एक चवन्नी
किसी थड़ी पर चाय पीते हुए
घंटों बिता लिया करते
विश्वास से भरे भरे
जेब से रीते रीते
प्रतीक्षा करते अच्छे दिनों की
गुनगुनाते रात के तीसरे प्रहर
शहर की सुनसान सड़कों पर
रफ़ी तलत और मुकेश के गीत
कितने अच्छे थे वो दिन
जब नहीं थी ईर्ष्या
नहीं था अहंकार
न ही कोई अपेक्षा थी किसी से
कितने लम्बे लगते थे
उमीद से भरे वो दिन
कितने मुश्किल , लेकिन
कितने अच्छे लगते है
आवारगी के वो दिन
------------------
[ प्रकाशित " राजस्थान पत्रिका " रविवार दिनांक २४ अगस्त ' २०१४ ]
अच्छे दिन
मेरे वो बुरे दिन
जो गुजरे दोस्तों के साथ
अच्छे दिन लगते है
किसी भी समय
कोई भी दोस्त
आ टपकता घर
अनचाहे ही मिल जाता राह में
दिख जाता चौराहे पर खड़ा हुआ
कई बार बातों बातों में
कट जाता पूरा दिन
घर से भूखे पेट
निकले हों या भर पेट
इतनी भूख हमेशा रहती
किसी दोस्त घर बैठे हों
दोस्त के साथ खा लिया करते
सड़क पर रहे हों तो
किसी प्याऊ पर
ठंडा पानी पी कर
ठहाके लगा लिया करते
गर किसी की भी
जेब में होती एक चवन्नी
किसी थड़ी पर चाय पीते हुए
घंटों बिता लिया करते
विश्वास से भरे भरे
जेब से रीते रीते
प्रतीक्षा करते अच्छे दिनों की
गुनगुनाते रात के तीसरे प्रहर
शहर की सुनसान सड़कों पर
रफ़ी तलत और मुकेश के गीत
कितने अच्छे थे वो दिन
जब नहीं थी ईर्ष्या
नहीं था अहंकार
न ही कोई अपेक्षा थी किसी से
कितने लम्बे लगते थे
उमीद से भरे वो दिन
कितने मुश्किल , लेकिन
कितने अच्छे लगते है
आवारगी के वो दिन
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[ प्रकाशित " राजस्थान पत्रिका " रविवार दिनांक २४ अगस्त ' २०१४ ]
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