कविता
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अन्तर्रात्मा
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दिखाई नहीं देतीदिखाई तो
पहले भी नहीं देती थी
कहना चाहिए
सुनाई नहीं देती
इन दिनों
अन्तर्रात्मा की आवाज़
आवाजे तो बहुत है
चीखने, चिल्लाने की
हँसने, रोने की
बहलाने, फुसलाने की
आरोप, प्रत्यारोप की
कोई स्वर ऐसा नहीं
जो जगा सके
अन्तर्रात्मा को
गायन भी बहुत है
वादन भी बहुत है
आलाप नहीं
प्रलाप बहुत है
कोई ऐसी लहर नहीं
जो छू सके
अन्तर्रात्मा को
आत्माएं भी बहुत है
कुछ भटकती, कुछ सिसकती
कुछ आत्मलीन , कुछ मलिन
परम आत्माएं तो
बहुत मिल जाती है
अन्तर्रात्मा
कही नहीं मिलती
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प्रेम और श्रद्धा
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मैं लोगों से मिलने पर
हाथ जोड़ता हूँ, या फिर
हाथ मिलाता हूँ
किसी के गले नहीं पड़ता
न ही पैर पड़ता हूँ
कई लोगों में
उमड़ता प्रेम
भींच लेते है सीने से लगा कर
दम घुटने लगता है
कई लोगों में
उमडती है श्रद्धा
झुक जाते है टखनों तक
इतने कि-
शर्म आने लगती है
पता नहीं क्यों
मैं जितना प्रेम करने वालों से
डरता हूँ , उतना ही
श्रद्धा रखने वालों से भी
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[ ' प्रगतिशील वसुधा ' -अंक ९४ -जन- मार्च' २०१३ में प्रकाशित]
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