कविता
--------------
कौवे : तीन कवितायेँ
------------------------
[ एक ]
इन दिनों शहर से
कहीं बहुत दूर
कहीं बहुत दूर
निकल गए है कौवे
अब किसी घर की
मुंडेर पर नहीं सुनाई देती
काँव ....... काँव .........
कौवे की काँव .. काँव
संदेशा लाती थी
विरहनियों के लिए
मेरे मुंडेरे कागा बोले
कोई आ रहा .........
पिया का संदेशा लाने पर
कौवे को लालच देती थीं
सोने की चोंच मढ़ाने का
विरह्नियाँ कौवे से
व्यक्त करती थीं व्यथा
कागा सब तन खाइयो
चुन चुन खाइयो मांस
दो नैना मत खाइयो
पिया मिलन की आस
कोवे विरह्नियों की
व्यथा से व्यथित
मुंडेर से उड कर
चले जाते थे सन्देशा लाने
--------
[ दो ]
कौवे की कर्कश आवाज़
बदसूरत रूप रंग भी
मोहक लगता था बच्चों को
कौवे जब छीन कर
ले जाते थे बच्चों के
हाथ रोटी, तो बुरा लगता था
कौवे की चतुराई से
चकित थे बच्चे
कौवे की बुद्धिमत्ता की
कहानी पढ़ कर
किस तरह बर्तन के
पैंदे में पड़े पानी को
कंकड़ डाल -डाल कर
सतह पर ले आया था
प्यासा कौवा
पौराणिक पक्षी कौवे की
काग दृष्टि के कायल थे सभी
कौवे की काँव -काँव से
परेशान होने के बावजूद
कौवे का बोलना
अपशगुन का सूचक नहीं था
-----------
[ तीन ]
पता नहीं शहर से
दूर क्यों चले गए कौवे
अब सिर्फ श्मशान में
दिखाई देते है कौवे
एक दिन किसी निकट के
रिश्तेदार की मृत्यु के बाद
तीये की क्रिया हेतु गया था श्मशान
पंडित जी ने
राख के ढेर से हड्डियाँ चुनने के बाद
आग जला कर टिकटी के ऊपर
चावल से भरा मिट्टी का कलश
रखा था चावल पकाने के लिए
पके हुए चावल एक दोने में
कलश के मुंह पर रख कर
हम प्रतीक्षा कर रहे थे
कौवे के आने की
दूर दूर तक कहीं नहीं थे कौवे
पंडित जी के आह्रवान करने पर
दस-पंद्रह मिनट बाद
कहीं से उड कर आये तीन-चार कौवे
ठिठकते हुए कलश पर बैठ कर
चोंच में चावल दबा कर
उड गए कौवे
तीये की क्रिया पूरी हो गई थी
मृतात्मा के परलोक में
पहुँच जाने का संकेत
दे गए थे कौवे
मै सोच रहा था
कितना जरूरी है
हमारे जीवन में
कौवे का होना
अब जबकि
शहर से बहुत दूर
चले गए है
कितने दिन नज़र आयेंगे
श्मशान में कोवे
श्मशान शहर के बीच
आ गया है
कौवे चले गए है
शहर से दूर
--------------
[ ' वागर्थ' जून' २०१३ अंक २ १ ५ में प्रकाशित ]
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें