गर्मियों की रातों में
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इन दिनों कम ही नज़र
उठती है आकाश की ओर
कई वर्ष हुए मैंने
शुभ्र - निरभ्र तारों से आच्छादित
आकाश नहीं देखा
नही देखा मैंने चाँद को घटते बढ़ते
पूर्ण चंद्रमा में
चरखा कातती बुढिया को नहीं देखा
अब रात को नींद आने से पहले
कमरें की छत पर
चलता पंखा दिखाई देता है
या- सामने की दीवार पर टंगी
टिक-टिक करती घड़ी
गर्मियों की वे राते
जब मै सोता था छत पर
कितनी अलग थी इन रातों से
सूर्यास्त होने पर
पानी की भरी बाल्टियों से
छिडकाव करने के बाद
चल- पहल बढ़ जाती थी छत पर
अँधेरा बढ़ने के साथ
कम होता जाता था शोर
बरगद के पेड़ के पीछे से
उठने लगता चाँद
बिस्तर पर लेटे -लेटे
एक टक देखता रहता
चाँद और चाँद में छुपी आकृतियाँ
तारों से भरे नीले आकाश में
उत्तर दिशा में संगति बिठाता
सप्तरिशी मंडल की
आसपास ही सबसे तेज चमकते
ध्रुव तारे को खोजते हुए
कब नींद आजाती मालूम नहीं
गर्मियों की रातों में छत पर सोते हुए
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शनिवार, 4 जुलाई 2009
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वाह...बहुत खूब लिखा है आपने माथुर साहेब...बचपन की यादें ताज़ा हो गयीं...सच है तारों भरे आकाश के नीचे सोये युग बीत गया गरम हवा और मच्छर आजकल इस सुख से वंचित किये हुए हैं...वो भी क्या दिन /रातें थीं...अद्भुत रचना...बधाई...
जवाब देंहटाएंनीरज
बहुत खूब -- सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रचना
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चर्चा । Discuss INDIA
क्या बात है माथुर साहब ...........जबाव नही ...........नतमस्तक
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना.
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