कविता
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डर
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जबकि कोई दुश्मन नहीं है मेरा
फिर भी डरा हुआ रहता हूँ
डर है कि निकलता ही नहीं
दिखने में तो कोई दुश्मन नहीं लगता
फिर भी पता नहीं
मन ही मन
किसी ने पाल रखी हो दुश्मनी
ये सही है कि
मैंने किसी का हक नहीं मारा
किसी कि ज़मीन जायदाद नहीं दबाई
किसी को अपशब्द नहीं कहे
फिर भी मुझे शक है
किसी भी दिन सामने आ सकता है दुश्मन
सच और खरी खरी कहना
हँसी हँसी में कटाक्ष करना
झूठी प्रशंसा नहीं करना
इतना बहुत है
किसी को दुश्मन बनाने के लिए
सुझाव भी सहजता से नहीं लेते
आलोचना तो बिलकुल बर्दाश्त नहीं करते
किसी भी दिन मार सकते है चाक़ू
सोचता हूँ चुप रहूँ
पर कुछ भी नहीं बोलने को भी
अपमान समझते है लोग
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कविता
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कम-कम
[एक]
कम-कम में भी
कट जाता है जीवन
खुशियाँ मिली कम प्रेम मिला कम
लोगों के दिल में
जगह मिली कम
चाय में मिली
चीनी कम
दाल में मिला
नमक कम
शराब में मिला
पानी कम
दोस्तों ने निभाई
दोस्ती कम
दुश्मनों ने निभाई
दुश्मनी कम
कुछ और अच्छा
कट जाता जीवन
दुःख भी
मिले होते कम
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कम-कम
[दो]
कम-कम ही मिले
नहीं मिलने से बेहतर
कम ही मिले
सबकी हो
आकाश में साझेदारी
एक टुकड़ा ज़मीन का
सबको मिले
पीने के लायक जल मिले
जीने के लायक वायु मिले
कम ही मिले पर सबको
अन्न मिले
सम्पन्नता ,वैभव और
भव्यता पर
चाहे रहे चंद लोगों कि
इजारेदारी
सम्मान-स्वाभिमान का
हक सबको मिले
हर घर में हो चिराग
रोशनी चाहे कम मिले
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[शुक्रवार साहित्य वार्षिकी २०१२ में प्रकाशित ]
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