कविता
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चिंगारी
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दबी रहती है ईर्ष्या
बरसों बरस
मन के किसी कोने में
जैसे छुपी रहती है
राख के ढेर में
चिंगारी
जैसे सुप्त रहती है
स्मृति
पहले प्रेम की
एक दिन आता है
मौका
अपने को उजागर करने का
प्रकट हो जाती है ईर्ष्या
एक दिन आता है
झोंका
तेज हवा का
सुलग उठती है चिंगारी
एक दिन उठता ज्वार
मन के महा समुद्र में
उमड़ता है प्रेम स्मृति में
चिंगारी
प्रेम में भी है
ईर्ष्या में भी और
राख के ढेर में भी
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डुबोया मुझको होने ने
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मुझे मेरे
आलोचकों ने बचाया
मेरे निंदकों ने
याद रखा मुझे
प्रशंसको ने
चढाया मुझे पहाड पर
जहाँ से मैं लुढक गया
लुढकना ही था
दोस्तों ने
बनाया मुझे
मैं ही कृतध्न
उनकी अपेक्षा पर
खरा नहीं उतरा
दुश्मन बिना अपेक्षा के
निबाह रहे है दुश्मनी
दोस्तों की स्मृति से बाहर
दुश्मनों की नींद में
जीवित हूँ मैं
मुझे इन दिनों
दुश्मन याद आते न दोस्त
याद आते है ग़ालिब
डुबोया मुझको होने ने
न होता मैं तो क्या होता
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{ "वागर्थ" जुलाई' २०११ में प्रकाशित }
गुरुवार, 7 जुलाई 2011
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es "hone"ki khatir "dubna"pyara sauda hain!kavitayen achhi lagi...alag swad ki bhi.
जवाब देंहटाएंmujhe in dino dushman yaad aate hain na dost.. na hota mai to kya hota.
जवाब देंहटाएंBAHUT KHUB LIKHA HAI HAR BAAT DIL KI.